Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग-२
होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा नहीं छिपती, किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती ही है जिससे कि दिन-रात का विभाग किया जा सके। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय-कर्म का प्रबल उदय होने पर भी जीव का दृष्टि-गुण सर्वथा आवृत नहीं होता। अतएव किसी न किसी अंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है।
प्रश्न-जब मिथ्यात्वी की दृष्टि किसी भी अंश में यथार्थ हो सकती है, तब उसे सम्यग्दृष्टि कहने और मानने में क्या बाधा है?
उत्तर-एक अंश मात्र की यथार्थ प्रतीति होने से जीव सम्यग्दृष्टि नहीं कहलाता, क्योंकि शास्त्र में ऐसा कहा गया है कि जो जीव सर्वज्ञ के कहे हुये बारह अङ्गों पर श्रद्धा रखता है, परन्तु उन अङ्गों के किसी भी एक. अक्षर पर विश्वास नहीं करता, वह भी मिथ्यादृष्टि ही है, जैसे जमालि। मिथ्यात्व की अपेक्षा सम्यक्त्वी -जीव में विशेषता यही है कि सर्वज्ञ के कथन के ऊपर सम्यक्त्वी का विश्वास अखण्डित रहता है, और मिथ्यात्वी का नहीं ॥१॥
२. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान---जो जीव औपशमिक सम्यक्त्वी है, परन्तु अनन्तानुबन्धि कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़ मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है, वह जीव जब तक मिथ्यात्व को नहीं पाता तब तक–अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छ: आवलिका पर्यन्त सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है
और उस जीव का स्वरूप-विशेष ‘सासादन सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान' कहलाता है।।१०१।।
इस गुणस्थान के समय यद्यपि जीव का झुकाव मिथ्यात्व की ओर होता है, तथापि जिस प्रकार खीर खाकर उसका वमन करने वाले मनुष्य को खीर का विलक्षण स्वाद अनुभव में आता है, इसी प्रकार सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व की ओर झुके हुये उस जीव को भी, कुछ काल के लिये सम्यक्त्व गुण का आस्वाद अनुभव में आता है। अतएव इस गुणस्थान को ‘सास्वादन सम्यग्दृष्टिगुणस्थान' भी कहते हैं।।
प्रसंगवश इसी जगह औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति का क्रम लिख दिया जाता है।
जीव अनादि-काल से संसार में घूम रहा है, और तरह-तरह के दुःखों को पाता है। जिस प्रकार पर्वत की नदी का पत्थर इधर-उधर टकरा कर गोल और चीकना बन जाता है, उसी प्रकार जीव भी अनेक दुःख सहते हुए कोमल और शुद्ध परिणामी बन जाता है। परिणाम इतना शुद्ध हो जाता है कि जिसके
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