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कर्मग्रन्थभाग- २
मिश्रित दही का स्वाद कुछ अम्ल (खट्टा) और कुछ मधुर (मीठा ) अर्थात् मिश्र होता है। इस प्रकार जीव की दृष्टि भी कुछ सम्यक् (शुद्ध) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध)-अर्थात् मिश्र हो जाती है। इसी से वह जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि) कहलाता है तथा उसका स्वरूपविशेष सम्यग्मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान (मिश्र गुणस्थान)। इस गुणस्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता-सी आ जाती है। जिससे जीव सर्वज्ञ के कहे हुए तत्त्वों पर न तो एकान्त रुचि करता है, और न एकान्त अरुचि । किन्तु वह सर्वज्ञ-प्रणीत तत्त्वों के विषय में इस प्रकार मध्यस्थ रहता है, जिस प्रकार कि नालिकेर द्वीप निवासी मनुष्य ओदन (भात) आदि अन्न के विषय में। जिस द्वीप में प्रधानतया नरियल पैदा होते हैं, वहाँ के अधिवासियों ने चावलआदि अन्न न तो देखा होता है और न सुना। इससे वे अदृष्ट और अश्रुत अन्न को देखकर उसके विषय में रुचि या घृणा नहीं करते । किन्तु समभाव ही रहते हैं । इसी तरह सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव भी सर्वज्ञ कथित मार्ग पर प्रीति या अप्रीति न करके, समभाव ही रहते हैं। अर्धविशुद्ध पुंज का उदय अन्तर्मुहूर्त मात्र पर्यन्त रहता है। इसके अनन्तर शुद्ध या अशुद्ध किसी एक पुञ्ज का उदय हो आता है। अतएव तीसरे गुणस्थान की स्थिति, मात्र अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण मानी जाती है || ३ ||
४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान – सावध व्यापारों को छोड़ देना अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाने को विरति कहते हैं। चारित्र और व्रत, विरति ही का नाम है। जो सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी भी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि, और उसका स्वरूपविशेष अविरतसम्यग्दृष्टि- गुणस्थान कहलाता है अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं। जैसे
१. जो व्रतों को न जानते हैं, न स्वीकारते हैं और न पालते हैं। वे सामान्यतः सब लोग।
२. जो व्रतों को जानते नहीं, स्वीकारते नहीं किन्तु पालते हैं। वे तपस्वीविशेष। ३. जो व्रतों को जानते नहीं, परन्तु स्वीकारते हैं और स्वीकार कर पालते नहीं, वे पार्श्वस्थ नामक साधुविशेष ।
४. जिनको व्रतों का ज्ञान नहीं है, किन्तु उनका स्वीकार तथा पालन बराबर करते हैं, वे अगीतार्थ मुनि ।
५.
जिनको व्रतों का ज्ञान तो है, परन्तु जो व्रतों को स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते, वे श्रेणिक, कृष्ण आदि ।
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