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कर्मग्रन्थभाग-२
से योग नहीं देता केवल संवासानुमति को सेवता है, वह अन्य सब श्रावकों से श्रेष्ठ है।।५।।
६. प्रमत्तसंयतगुणस्थान-जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, संयत (मुनि) हैं। संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं, तब तक प्रमत्तसंयत कहलाते हैं, और उनका स्वरूपविशेष प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहलाता है। जो जीव संयत होते हैं, वे यहाँ तक सावध कर्मों का त्याग करते हैं कि पूर्वोक्त संवासानुमति को भी नहीं सेवते। इतना त्यागकर सकने का कारण यह है कि, छठे गुणस्थान से लेकर आगे प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता ही नहीं है।।६।।
७. अप्रमत्तसंयतगुणस्थान-जो मुनि निद्रा, विषय, कषाय विकथाआदि प्रमादों को नहीं सेवते वे अप्रमत्तसंयत हैं, और उनका स्वरूप-विशेष, जो ज्ञान-आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतम-भाव से होता है, वह अप्रमत्तसंयत गुणस्थान है। प्रमाद के सेवन से ही आत्मा गुणों की शुद्धि से गिरता है; इसलिये सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के सब गुणस्थानों में वर्तमान मुनि, अपने स्वरूप में अप्रमत्त ही रहते हैं।।७।।
८. निवृत्ति (अपूर्वकरण) गुणस्थान-जो इस गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं तथा जो प्राप्त कर रहे हैं और जो आगे प्राप्त करेंगे, उन सब जीवों के अध्यवसाय स्थानों की (परिणाम-भेदों की) संख्या, असंख्यात-लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर है। क्योंकि इस आठवें गुणस्थान की स्थिति-अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात समय होते हैं जिनमें से केवल प्रथम समयवर्ती त्रैकालिक-(तीनों काल के) जीवों के अध्यवसाय भी असंख्यात-लोकाकाशों के प्रदेशों के तुल्य हैं। इस प्रकार दूसरे, तीसरे आदि प्रत्येक समयवर्ती कालिक जीवों के अध्यवसाय भी गणना में असंख्यात-लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर ही हैं। असंख्यात संख्या के असंख्यात प्रकार हैं। इसलिये एक-एक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समयों में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या-ये दोनों संख्यायें सामान्यत: एक-सी अर्थात् असंख्यात् ही हैं। तथापि वे दोनों असंख्यात संख्यायें परस्पर भिन्न हैं। यद्यपि इस आठवें गुणस्थान के प्रत्येक समयवर्ती कालिक-जीव अनन्त ही होते हैं, तथापि उनके अध्यवसाय असंख्यात ही होते हैं। इसका कारण यह है कि समान समयवर्ती अनेक जीवों के अध्यवसाय यद्यपि आपस में अलग-अलग (न्यूनाधिक शुद्धिवाले) होते हैं, तथापि समसमयवर्ती बहुत जीवों के अध्यवसाय तुल्य
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