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कर्मग्रन्थभाग-२
कारण एक ही वर्ग हो सकता है। पूर्व-पूर्व गणस्थान की अपेक्षा उत्तर-उत्तर गुणस्थान में कषाय के अंश बहुत कम होते जाते हैं, और कषाय की (संक्लेशकी) जितनी ही कमी हुई, उतनी ही विशुद्धि जीव के परिणामों की बढ़ जाती है। आठवें गुणस्थान से नौवें गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो जाती है कि उसके अध्यवसायों की भिन्नतायें आठवें गुणस्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती है।
दसवें गुणस्थान की अपेक्षा नौवें गुणस्थान में बादर (स्थूल) सम्परायं (कषाय) उदय में आता है। तथा नौवें गुणस्थान के सम-समयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति (भिन्नता) नहीं होती। इसीलिये इस गुणस्थान का 'अनिवृत्तिबादरसम्पराय' ऐसा सार्थक नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है।
नौवें गणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव, दो प्रकार के होते हैं--एक उपशमक और दूसरे क्षपक। जो चारित्र मोहनीय-कर्म का उपशमन करते हैं, वे उपशमक और जो चारित्र मोहनीय-कर्म का क्षपण (क्षय) करते हैं वे क्षपक कहलाते हैं।।९॥ सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान
इस गुणस्थान में सम्पराय के अर्थात् लोभ-कषाय के सूक्ष्म-खण्डों का ही उदय रहता है। इसलिये इसका ‘सूक्ष्मसम्पराय-गुणस्थान' ऐसा सार्थक नाम प्रसिद्ध है। इस गुणस्थान के जीव भी उपशमक और क्षपक होते हैं। जो उपशमक होते हैं वे लोभ-कषायमात्र का उपशमन करते हैं और जो क्षपक होते हैं वे लोभकषाय-मात्र का क्षपण करते हैं। क्योंकि दसवें गणस्थान में लोभ के अतिरिक्त दूसरी चारित्रमोहनीय-कर्म की ऐसी प्रकृति ही नहीं है जिसका कि उपशमन या क्षपण न हुआ हो।।१०।। उपशान्तकषाय वीतरागछग्रस्थ गुणस्थान
जिनके कषाय उपशान्त हुये हैं, जिनको राग का भी (माया तथा लोभ का भी) सर्वथा उदय नहीं है, और जिनको छद्म (आवरण भूत घातिकर्म) लगे हुये हैं, वे जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ तथा उनका स्वरूप-विशेष 'उपशान्त कषायवीतरागछद्यस्थ गुणस्थान, कहलाता है।
__ (विशेषण दो प्रकार का होता है-१. स्वरूप विशेषण ओर २. व्यावर्तक विशेषण। 'स्वरूपविशेषण' उस विशेषण को कहते हैं जिस विशेषण के न रहने पर भी शेष भाग से इष्ट-अर्थ का बोध हो ही जाता है-अर्थात् जो विशेषण
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