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कर्मस्तव नामक दूसरा कर्मग्रन्थ
बन्धाधिकार तह थुणिमो वीरजिणं जह गुणठाणेसु सयलकमाई।
बन्युदओदीरणयासत्तापत्ताणि खवियाणि ।।१।। (तथा स्तुमो वीरजिनं यथा गुणस्थानेषु सकलकर्माणि । बन्धोदयोदीरणसत्ताप्राप्तानि क्षपितानि ।।१।।
अर्थ-गणस्थानों में बन्ध को, उदय को, उदीरणा को और सत्ता को प्राप्त हुये सभी कर्मों का क्षय जिस प्रकार भगवान् वीर ने किया, उसी प्रकार से उस परमात्मा की स्तुति हम करते हैं।
भावार्थ-असाधारण और वास्तविक गुणों का कथन ही स्तुति कहलाती है। सकल कर्मों का नाश यह भगवान् का असाधारण और यथार्थ गुण है, इससे उस गुण का कथन करना ही स्तुति है।
मिथ्यात्व आदि निमित्तों से ज्ञानावरण आदि रूप में परिणत होकर कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ दूध पानी के समान मिल जाना, 'बंध' कहलाता है।
उदय काल आने पर कर्मों के शुभाशुभ फल का भोगना 'उदय' कहलाता है।
[अबाधा काल व्यतीत हो चुकने पर जिस समय कर्म के फल का अनुभव होता है, उस समय को 'उदयकाल' समझना चाहिये।
बन्धे हुये कर्म से जितने समय तक आत्मा को अबाध नहीं होती-अर्थात् शुभाशुभ-फल का वेदन नहीं होता उतने समय को 'अबाधा काल' समझना चाहिये।
सभी कर्मों का अबाधा काल अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार अलगअलग होता है। कभी तो वह अबाधा काल स्वाभाविक क्रम से ही व्यतीत होता है, और कभी अपवर्तनाकरण से जल्द पूरा हो जाता है।
जिस वीर्यविशेष से पहले बँधे हुये कर्म की स्थिति तथा रस घट जाते हैं उसको, 'अपवर्तनाकरण' समझना चाहिये।]
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