________________
प्रस्तावना
xli
रूप में करता है-थोड़े बहुत नियम पालने के लिये सहिष्णु हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण नामक संस्कार–जिनका वेग पाँचवीं भूमिका से आगे नहीं हैउनका प्रभाव घटते ही चारित्र-शक्ति का विकास और भी बढ़ता है, जिससे आत्मा बाहरी भोगों से हटकर पूरा संन्यासी बन जाता है। यह हुई विकास की छठी भूमिका। इस भूमिका में भी चारित्र-शक्ति के विपक्षी 'संज्वलन' नाम के संस्कार कभी-कभी ऊधम मचाते हैं, जिससे चारित्र-शक्ति का विकास दयता तो नहीं, पर उसकी शुद्धि या स्थिरता में अन्तराय इस प्रकार आते हैं, जिस प्रकार वायु के वेग के कारण, दिये की ज्योति की स्थिरता व अधिकता। आत्मा जब 'संज्वलन' नाम के संस्कारों को दबाता है, तब उत्क्रान्तिपथ की सातवीं आदि भूमिकाओं को लाँघकर ग्यारहवीं बारहवीं भूमिका तक पहुँच जाता है। बारहवीं भूमिका में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति के विपक्षी संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, जिससे उक्त दोनों शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। तथापि उस अवस्था में शरीर का सम्बन्ध रहने के कारण आत्मा की स्थिरता परिपूर्ण होने नहीं पाती। वह चौदहवीं भूमिका में सर्वथा पूर्ण बन जाती है और शरीर का वियोग होने के बाद वह स्थिरता, वह चारित्र-शक्ति अपने यथार्थरूप में विकसित होकर सदा के लिये एक-सी रहती है। इसी को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष कहीं बाहर से नहीं आता। वह आत्मा की समग्र शक्तियों का परिपूर्ण व्यक्त होना मात्र है
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव च । अज्ञान- हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।
(शिवगीता-१३-३२) यह विकास की पराकाष्ठा, यह परमात्म-भाव का अभेद, यह चौथी भूमिका (गुणस्थान) में देखे हुये ईश्वरत्व का तादात्म्य, यह वेदान्तियों का ब्रह्म-भाव, यह जीव का शिव होना, और यही उत्क्रान्ति-मार्ग का अन्तिम साध्य है। इसी साध्य तक पहुँचने के लिये आत्मा को विरोधी संस्कारों के साथ लड़ते झगड़ते, उन्हें दबाते, उत्क्रान्ति-मार्ग की जिन-जिन भूमिकाओं पर आना पड़ता है, उन भूमिकाओं के क्रम को ही 'गुणस्थान-क्रम' समझना चाहिये। यह तो हुआ गुणस्थानों का सामान्य स्वरूप। उन सबका विशेष स्वरूप थोड़े बहत विस्तार के साथ इसी कर्मग्रन्थ की दूसरी गाथा की व्याख्या में लिख दिया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org