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प्रस्तावना
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गुणस्थान का संक्षिप्त सामान्य-स्वरूप आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञानपूर्ण होती है। वह अवस्था सब से प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। उस अवस्था से आत्मा अपने स्वाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास की बदौलत निकलता है, और धीरे-धीरे उन शक्तियों के विकास के अनुसार उत्क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णकलाअन्तिम हद-को पहँच जाता है। पहली निकृष्ट अवस्था से निकल कर, विकास की आखरी भूमि को पाना ही आत्मा का परमसाध्य है। इस परमसाध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी ऐसी क्रमिक अनेक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणि को 'विकास-क्रम' या 'उत्क्रान्ति-मार्ग' कहते हैं और जैनशास्त्रीय परिभाषा में उसे 'गुणस्थान-क्रम' कहते हैं। इस विकास-क्रम के समय होने वाली आत्मा की भिन्नभिन्न अवस्थाओं का संक्षेप, १४ भागों में कर दिया गया है। ये १४ भाग, गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। दिगम्बर-साहित्य में 'गुणस्थान' के अर्थ में संक्षेप, ओघ, सामान्य और जीवसमास शब्दों का भी प्रयोग देखा जाता है। १४ गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा-इस प्रकार पूर्वपूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थान में विकास की मात्रा अधिक रहती है। विकास की न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है। स्थिरता, समाधि, अन्तर्दृष्टि, स्वभाव-रमण, स्वोन्मुखताइन सब शब्दों का मतलब एक ही है। स्थिरता का तारतम्य दर्शन और चारित्रशक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। दर्शन शक्ति का जितना अधिक विकास, जितनी अधिक निर्मलता, उतना ही अधिक आविर्भाव, सद्विश्वास, सद्रुचि, सद्भक्ति, सत्श्रद्धा या सत्याग्रह का विकास समझना चाहिए। दर्शन-शक्ति के विकास के बाद चारित्र-शक्ति के विकास का नम्बर आता है। जितना-जितना चारित्र-आविर्भाव क्षमा, संतोष, गाम्भीर्य इन्द्रिय-जय आदि चारित्र-गुणों का होता है। जैसे-जैसे दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति की विशुद्धि बढ़ती जाती है, वैसेवैसे स्थिरता की मात्रा भी अधिक से अधिक होती जाती है। दर्शन व चारित्रशक्ति की विशुद्धि का बढ़ना-घटना, उन शक्तियों के प्रतिबन्धक (रोकनेवाले) संस्कारों की न्यूनता-अधिकता या मन्दता-तीव्रता पर अवलम्बित है। प्रथम तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति का विकास इसलिये नहीं होता कि उनमें उन शक्तियों के प्रतिबन्धक संस्कारों की अधिकता या तीव्रता है। चतुर्थ आदि गुणस्थानों में वे ही प्रतिबन्धक संस्कार कम (मन्द) हो जाते हैं; इससे उन
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