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कर्मग्रन्थभाग-२
चाहिए। इससे यह हो सकता है कि कदाचित् उस द्वितीय कर्मग्रन्थ का ही नाम गोम्मटसार में लिया गया हो और स्वतन्त्रता दिखाने के लिए 'स्तव' शब्द की व्याख्या बिल्कुल बदल दी गई हो। अस्तु, इस विषय में कुछ भी निश्चित कहना साहस है। यह अनुमान-सृष्टि, वर्तमान लेखकों की शैली का अनुकरण मात्र है। इस नवीन द्वितीय कर्मग्रन्थ के प्रणेता श्रीदेवेन्द्रसूरि का समय आदि पहले कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना से जानना चाहिए।
गोम्मटसार में 'स्तव' शब्द का साङ्केतिक अर्थ
इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान को लेकर बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का विचार किया गया है वैसे ही गोम्मटसार में भी किया गया है। इस कर्मग्रन्थ का नाम तो 'कर्मस्तव' है पर गोम्मटसार के उस प्रकरण का नाम 'बन्धोदयसत्त्वयुक्त-स्तव' जो ‘बन्धुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे धवं वोच्छं' इस कथन से सिद्ध है (गो. कर्म गा. ८७)। दोनों नामों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्योंकि कर्मस्तव में जो 'कर्म' शब्द है उसी की जगह 'बन्धोदयसत्त्वयुक्त' शब्द रखा गया है। परन्तु 'स्तव' शब्द दोनों नामों में समान होने पर भी, उसके अर्थ में बिल्कुल भिन्नता है। 'कर्मस्तव' में 'स्तव' शब्द का मतलब स्तुति से है जो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है पर गोम्मटसार में 'स्तव' शब्द का स्तुति अर्थ न करके खास सांकेतिक अर्थ किया गया है। इसी प्रकार उसमें 'स्तुति' शब्द का भी पारिभाषिक अर्थ किया है जो और कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे
सयलंगेक्कंगेक्कंगहियार सवित्थरं ससंखेवं । वण्णणसत्थं थयथुइधम्मकहा होइ णियमेण ।।
(गो.कर्म.गा. ८८) अर्थात् किसी विषय के समस्त अंगों का विस्तार या संक्षेप से वर्णन करनेवाला शास्त्र ‘स्तव' कहलाता है। एक अंग का विस्तार या संक्षेप से वर्णन करनेवाला शास्त्र 'स्तुति' और एक अंग के किसी अधिकार का वर्णन जिसमें है वह शास्त्र ‘धर्मकथा' कहलाता है।
इस प्रकार विषय और नामकरण दोनों तुल्यप्राय होने पर भी नामार्थ में जो भेद पाया जाता है, वह सम्प्रदाय-भेद तथा ग्रन्थ-रचना-सम्बन्धी देश-काल के भेद का परिणाम जान पड़ता है।
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