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कर्मग्रन्थभाग- २
विषय - विभाग
इस ग्रन्थ के विषय के मुख्य चार विभाग हैं- (१) बन्धाधिकार, (२) उदयाधिकार, (३) उदीरणाधिकार और ( ४ ) सत्ताधिकार । बन्धाधिकार में गुणस्थान क्रम को लेकर प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों की बन्ध-योग्यता को दिखाया है। इसी प्रकार उदयाधिकार में, उनकी उदय - सम्बन्धिनी योग्यता को, उदीरणाधिकार में उदीरणा-सम्बन्धिनी योग्यता को और सत्ताधिकार में सत्तासम्बन्धिनी योग्यता को दिखाया है। उक्त ४ अधिकारों की घटना, जिस वस्तु पर की गई है, उस वस्तु — गुणस्थान - क्रम- का नाम-निर्देश भी ग्रन्थ के आरम्भ में दिया गया है। अतएव, इस ग्रन्थ का विषय, पाँच भागों में विभाजित हो गया है। सबसे पहले गुणस्थान-क्रम का निर्देश और पीछे क्रमशः पूर्वोक्त चार अधिकारों को प्रस्तुत किया गया है।
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'कर्मस्तव' नाम रखने का अभिप्राय
आध्यात्मिक विद्वानों की दृष्टि, सभी प्रवृत्तियों में आत्मा की ओर रहती है। वे, करें कुछ भी पर उस समय अपने सामने एक ऐसा आदर्श उपस्थित किये होते हैं कि जिससे उनके आध्यात्मिक महत्त्वाभिलाष पर जगत् के आकर्षण का कुछ भी असर नहीं होता। उन लोगों का अटल विश्वास होता है कि 'ठीकठीक लक्षित दिशा की ओर जो जहाज चलता है वह, बहुत कर विघ्न-बाधाओं का शिकार नहीं होता।' यह विश्वास, कर्मग्रन्थ के रचयिता आचार्य में भी था । इससे उन्होंने ग्रन्थ-रचना- - विषयक प्रवृत्ति के समय भी महान् आदर्श को अपनी नज़र के सामने रखना चाहा । ग्रन्थकार की दृष्टि में आदर्श थे भगवान् महावीर | भगवान् महावीर के जिस कर्मक्षयरूप असाधारण गुण पर ग्रन्थकार मुग्ध हुए थे उस गुण को उन्होंने अपनी कृति द्वारा दर्शाना चाहा। इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना उन्होंने अपने आदर्श भगवान् महावीर की स्तुति के बहाने से की है। इस ग्रन्थ में मुख्य वर्णन, कर्म के बन्धादि का है, पर वह किया गया है स्तुति के बहाने से । अतएव, प्रस्तुत ग्रन्थ का अर्थानुरूप नाम 'कर्मस्तव' रखा गया है।
ग्रन्थ-रचना का आधार
इस ग्रन्थ की रचना 'प्राचीन कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्मग्रन्थ के आधार पर हुई है। उसका और इसका विषय एक ही है। भेद इतना ही है कि इस का परिमाण, प्राचीन कर्मग्रन्थ से अल्प है। प्राचीन में ५५ गाथाएँ हैं, पर इसमें
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