________________
कर्मग्रन्थभाग- १
(इय) इस प्रकार (सत्तट्ठी) ६७ प्रकृतियाँ (बन्धोदर) बन्ध, उदय और (य) च - अर्थात् उदीरणा की अपेक्षा समझना चाहिये । ( सम्ममीसया) सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय ( बन्ध) बन्ध में (नहुय) न च - नैव- नहीं लिये जाते, (बन्धु) सत्ताए बन्ध, उदय और सत्ता की अपेक्षा क्रमशः (वीस दुवी - सवन्नसयं) एक सौ बीस, एक सौ बाईस और एक सौ अट्ठावन कर्म प्रकृतियाँ ली जाती हैं ॥ ३२ ॥
भावार्थ - इस गाथा में बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ता की अपेक्षा से कुल कर्म - प्रकृतियों की अलग-अलग संख्याएँ कही गई हैं।
४७
एक सौ बीस १२० कर्म - प्रकृतियाँ बन्ध की अधिकारिणी हैं, सो इस प्रकार- - नाम-कर्म की ६७, ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २६, आयु की ४, गोत्र की २ और अन्तराय की ५, सबको मिलाकर १२० कर्म - प्रकृतियाँ हुईं।
यद्यपि मोहनीय-कर्म के २८ भेद हैं, परन्तु बन्ध २६ का ही होता है, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, (जिस मिथ्यात्व मोहनीय का बन्ध होता है, उसके कुछ पुद्गलों को जीव अपने सम्यक्त्वगुण से अत्यन्त शुद्ध कर देता है और कुछ पुद्गलों को अर्द्धशुद्ध करता है । अत्यन्त शुद्ध पुद्गल, सम्यक्त्वमोहनीय और अर्द्ध-शुद्ध पुद्गल मिथ्यात्व मोहनीय कहलाते हैं।
तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीय की दो प्रकृतियों को सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को कम कर देने से शेष १२० प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हुई।
अब इन्हीं बन्ध योग्य प्रकृतियों में जो मोहनीय की दो प्रकृतियाँ घटा दी गई थीं उनको मिला देने से एक सौ बाईस १२२ कर्म - प्रकृतियाँ, उदय तथा उदीरणा की अधिकारिणी हुई; क्योंकि अन्यान्य प्रकृतियों के समान ही सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय की उदय उदीरणा हुआ करती है।
एक सौ अट्ठावन (१५८) अथवा एक सौ अड़तालीस (१४८ ) प्रकृतियाँ सत्ता की अधिकारिणी हैं, सो इस प्रकार ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयु की ४, नामकर्म की १०३, गोत्र की २ और अन्तराय की ५, सब मिलाकर १५८ हुई इस संख्या में बन्धननाम के १५ भेद मिलाए गये हैं, यदि १५ के स्थान में ५ भेद ही बन्धन के समझे जायें तो १५८ में से १० के घटा देने पर सत्तायोग्य प्रकृतियों की संख्या १४८ होगी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org