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कर्मग्रन्थभाग-१ स्थावर-दशक समाप्त हुआ। नामकर्म के ४२, ९३, १०३ और ६७ भेद कह चुके।
'गोत्रकर्म के दो भेद और अन्तराय के पाँच भेद' गोयं दुहुच्चनीयं कुलाल इव सुघडभुंभलाईयं । विग्धं दाणे लाभे भोगुवभोगेसु वीरिए य ।।५२।।
(गोयं) गोत्रकर्म (दुहुच्चनीयं) दो प्रकार का है—उच्च और नीच; यह कर्म (कुलाल इव) कुम्भार के सदृश है जो कि (सुघडभुंभलाईयं) सुघट और मद्यघट
आदि को बनाता है। (दाणे) दान, (लाभे) लाभ, (भोगुवभोगेसु) भोग, उपभोग, (य) और (वीरिए) वीर्य, इनमें विघ्न करने के कारण, (विग्घ) अन्तरायकर्म पाँच प्रकार का है ।।५२।।
भावार्थ-गोत्रकर्म सातवाँ है, उसके दो भेद हैं- उच्चैोत्र और नीचैर्गोत्र, यह कर्म कुम्भार के सदृश है। जैसे वह अनेक प्रकार के घड़े बनाता है, जिनमें से कुछ ऐसे होते हैं जिनको कलश बनाकर लोग अक्षत, चन्दन आदि से पूजते हैं; और कुछ घड़े ऐसे होते हैं, जो मद्य रखने के काम में आते हैं अतएव वे निन्द्य समझे जाते हैं, इसी प्रकार
१. जिस कर्म के उदय से जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है वह 'उच्चैर्गोत्र' है।
२. जिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है वह 'नीचैर्गोत्र' है।
धर्म और नीति की रक्षा के सम्बन्ध में जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है वे हैं उच्च-कुल, जैसे—इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, चन्द्रवंश आदि। अधर्म और अनीति के पालन से जिस कुल ने चिरकाल से प्रसिद्धि प्राप्त की है वह नीच-कुल, जैसे भिक्षुक कुल, बधक कुल (कसाइयों का) मद्यविक्रेत कुल (दारू बेचने वालों का) चौर कुल इत्यादि। ।
अन्तराय-कर्म, जिसका दूसरा नाम 'विघ्न-कर्म' है उसके पाँच भेद हैं
१. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय और ५. वीर्यान्तराय।
१. दान की चीजें मौजूद हों, गुणवान् पात्र आया हो, दान का फल जानता हो तो भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता, वह 'दानान्तरायकर्म' कहलाता है।
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