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कर्मग्रन्थभाग-१
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दर्शनमोहनीयकर्म के बन्ध के कारण उम्मग्गदेसणामग्गनासणादेवदव्वहरणेहिं । दसणमोहं जिणमुणिचेइयसंघाइपडिणीओ ।।५६।।
(उमग्गदेसणा) उन्मार्गदेसना-असत् मार्ग का उपदेश, (मग्गनासणा) सत् मार्ग का अपलाप, (देवदव्वहरणेहिं) देव-द्रव्य का हरण-इन कामों से जीव (दंसणमोह) दर्शनमोहनीय कर्म को बाँधता है, और वह जीव भी दर्शनमोहनीय को बाँधता है जो (जिणमणि चेइयसंघाइपडिणीओ) जिन, तीर्थंकर, मुनि साधु, चैत्य जिन-प्रतिमाएँ, संघ-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका इनके विरुद्ध आचरण करता हो ।।५६।।
भावार्थ-दर्शनमोहनीयकर्म के बन्ध-हेतु ये हैं१. उन्मार्ग का उपदेश करना-जिस कत्यों से संसार की वृद्धि होती है उन
कृत्यों के विषय में इस प्रकार का उपदेश करना कि ये मोक्ष के हेतु हैं; जैसे कि, देवी-देवों के सामने पशुओं की हिंसा करने को पुण्य-कार्य है ऐसा समझाना, एकान्त से ज्ञान अथवा क्रिया को मोक्ष-मार्ग बतलाना,
दीवाली जैसे पर्वो पर जुआ खेलना पुण्य है इत्यादि उलटा उपदेश करना। २. मुक्ति मार्ग का अपलाप करना-अर्थात् न मोक्ष है, न पुण्य-पाप है,
न आत्मा ही है, खाओ पीओ, ऐशोआराम करो, मरने के बाद न कोई आता है, न जाता है, पास में धन न हो तो कर्ज लेकर घी पीओ (ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्), तप करना यह तो शरीर को निरर्थक सुखाना है, आत्मज्ञान की पुस्तकें पढ़ना मानों समय को बरबाद करना है, इत्यादि
उपदेश देकर भोले-भाले जीवों को सन्मार्ग से हटाना। ३. देव-द्रव्य का हरण करना-अर्थात् देव-द्रव्य को अपने काम में खर्च
करना, अथवा देव-द्रव्य की व्यवस्था करने में बेपरवाही दिखलाना, या दूसरा कोई उसका दुरुपयोग करता हो तो प्रतिकार की सामर्थ्य रखते हुए भी मौन साध लेना देव-द्रव्य से अपना व्यापार करना है। इसी प्रकार ज्ञान-द्रव्य तथा उपाश्रय-द्रव्य का हरण भी समझना चाहिये। जिनेन्द्र भगवान् की निन्दा करना, जैसे कि दुनियाँ में कोई सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता, समवसरण में छत्र, चामर आदि का उपभोग करने के
कारण उनको वीतराग नहीं कह सकते इत्यादि। ५. साधुओं की निन्दा करना या उनसे शत्रुता करना। ६. जिन-प्रतिमा की निन्दा करना या उसे हानि पहुँचाना।
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