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कर्मग्रन्थभाग- १
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२. क्षमा करना — अर्थात् अपने में बदला लेने का सामर्थ्य रहते हुए भी, अपने साथ बुरा बर्ताव करने वाले के अपराधों को सहन करना ।
३. दया करना—अर्थात् दीन-दु:खियों के दुःखों को दूर करने की कोशिश
करना।
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४. अणुव्रतों का अथवा महाव्रतों का पालन करना ।
५.
योग का पालन करना - अर्थात् चक्रवाल आदि दस प्रकार की साधु की सामाचारी, जिसे संयमयोग कहते हैं उसका पालन करना ।
६. कषायों पर विजय प्राप्त करना - अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ के वेग से अपनी आत्मा को बचाना।
७. दान करना – सुपात्रों को आहार, वस्त्र आदि का दान करना, रोगियों को औषधि देना, जो जीव, भय से व्याकुल हो रहे हैं, उन्हें भय से छुड़ाना, विद्यार्थियों को पुस्तकों का तथा विद्या का दान करना, अन्नदान से भी बढ़कर विद्या- दान है क्योंकि अन्न से क्षणिक तृप्ति होती है; परन्तु विद्या- दान से चिरकाल तक तृप्ति होती है । सब दानों में अभयदान श्रेष्ठ है।
८. धर्म में - अपनी आत्मा के गुणों में- सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र में अपनी आत्मा को स्थिर रखना।
गाथा में आदि शब्द है इसलिये वृद्ध, बाल, ग्लान आदि की वैयावृत्य करना, धर्मात्माओं को उनके धार्मिक कृत्य में सहायता पहुँचाना, चैत्य-पूजन करना इत्यादि भी सातावेदनीय के बन्ध में कारण हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
जिन कृत्यों से सातावेदनीयकर्म का बन्ध कहा गया है उनसे उलटे काम करनवाले जीव असातावेदनीयकर्म को बाँधते हैं; जैसे कि - गुरुओं का अनादर करनेवाला, अपने ऊपर किये हुए अपकारों का बदला लेनेवाला, क्रूरपरिणामवाला, निर्दय, किसी प्रकार के व्रत का पालन न करनेवाला, उत्कृष्ट कषायोंवाला, कृपण-दान न करने वाला, धर्म के विषय में बेपरवाह, हाथी-घोड़े बैल आदि पर अधिक बोझा लादनेवाला, अपने आपको तथा औरों को शोकसन्ताप हो ऐसा बर्ताव करनेवाला, इत्यादि प्रकार के जीव, असातावेदनीयकर्म का बन्ध करते हैं।
साता का अर्थ है सुख और असाता का अर्थ है दुःख । जिस कर्म से सुख हो वह सातावेदनीय-अर्थात् पुण्य । जिस कर्म से दुःख हो, उस असातावेदनीय-अर्थात् पाप।
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