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कर्मग्रन्थभाग-१ से तेजोलेश्या के द्वारा औरों को नुकसान पहुंचाता है तथा प्रसन्न होकर शीतलेश्या के द्वारा फायदा पहुँचाता है वह इसी तेज:शरीर के प्रभाव से समझना चाहिये। अर्थात् आहार के पाक का हेतु तथा तेजोलेश्या और शीतलेश्या के निर्गमन का हेतु जो शरीर है, वह तैजस शरीर कहलाता है, जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति होती है उसे तैजस शरीरनामकर्म कहते हैं।
५. कर्मों का बना हुआ शरीर कार्मण कहलाता है, जीव के प्रदेशों के साथ लगे हये आठ प्रकार के कर्म-पदगलों को कार्मण शरीर कहते हैं। यह कार्मण शरीर, सब शरीरों का बीज है, इसी शरीर से जीव अपने मरण-देश को छोड़कर उत्पत्ति स्थान को जाता है। जिस कर्म से कार्मण शरीर की प्राप्ति हो, उसे काण शरीरनामकर्म कहते हैं।
समस्त संसारी जीवों को तैजस शरीर और कार्मण शरीर, ये दो शरीर अवश्य होते हैं। 'उपाङ्गनाम कर्म के तीन भेद'
बाहरु पिट्टि सिर उर उयरंग उवंग अंगुलीपमुहा । सेसा अंगोवंगा पढमतणुतिगस्सुवंगाणि ।। ३४।।
(बाहरु) भुजा, जंघा, (पिट्ठि) पीठ, (सिर) सिर, (उर) छाती और (उयरंग) पेट, ये अङ्ग हैं। (अंगुली पमुहा) उंगली आदि (उवंग) उपाङ्ग हैं। (सेसा) शेष (अंगोवंगा) अङ्गोंपाङ्ग हैं, (पढमतणुतिगस्सुवंगाणि) ये अङ्ग, उपाङ्ग और अङ्गोपाङ्ग प्रथम के तीन शरीरों में ही होते हैं ।।३४॥
भावार्थ-पिण्ड-प्रकृतियों में चौथा उपाङ्ग नामकर्म है। उपाङ्ग शब्द से तीन वस्तुओं का-अङ्ग, उपाङ्ग और अङ्गोपाङ्ग का ग्रहण होता है। ये तीनों--- अङ्गादि, औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों में ही होते हैं, अन्त के तैजस और कार्मण इन दो शरीरों में नहीं होते, क्योंकि इन दोनों का कोई संस्थान अर्थात् आकार नहीं होता; अङ्गोपाङ्ग आदि के लिये किसी न किसी आकृति की आवश्यकता है, सो प्रथम के तीन शरीरों में ही पाई जाती है।
अङ्ग के आठ भेद हैं-दो भुजाएँ, दो जंघाएँ, एक पीठ, एक सिर, एक छाती और एक पेट।
अङ्ग के साथ जुड़े हुए छोटे अवयवों को उपाङ्ग कहते हैं जैसे, उंगली आदि।
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