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कर्मग्रन्थभाग-१
६५
'आठ प्रत्येक प्रकृतियों का स्वरूप कहा गया अब त्रस-दशक का स्वरूप कहेंगे, इस गाथा में त्रसनाम, बादर नाम और पर्याप्त नामकर्म का स्वरूप कहेंगे।'
बितिचउपणिंदिय तसा बायरओ बायरा जिया थूला। नियनियपज्जत्तिजुया पज्जत्ता लद्धिकराणेहिं ।। ४९।।
(तसा) त्रस नामकर्म के उदय से जीव (बित्तिचउपणिंदिय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय होते हैं। (बायरओ) बादर नामकर्म के उदय से (जिया) जीव (बायरा) बादर-अर्थात् (थूला) स्थूल होते हैं। (पज्जत्ता) पर्याप्त नामकर्म के उदय से, जीव (नियनियपज्जत्तिजया) अपनी-अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं और वे पर्याप्त जीव (लद्धिकरणेहिं) लब्धि और करण को लेकर दो प्रकार के हैं ।।४९॥
भावार्थ—जो जीव सर्दी-गरमी से अपना बचाव करने के लिये एक स्थान को छोड़ दूसरे स्थान में जाते हैं वे त्रस कहलाते हैं; ऐसे जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय हैं।
त्रसनाम-जिस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय की प्राप्ति हो, वह त्रस नामकर्म है।
बादरनाम—जिस कर्म के उदय से जीव बादर-अर्थात् स्थूल होते हैं, वह बादरनाम-कर्म है।
आँख जिसे देख सके वह बादर, ऐसा बादर का अर्थ नहीं है; क्योंकि एक-एक बादर पृथ्वीकाय आदि का शरीर आँख से नहीं देखा जा सकता। बादर नामकर्म, जीव विपाकिनी प्रकृति जीव में बादर-परिणाम को उत्पन्न करती है; यह प्रकृति जीव विपाकिनी होकर भी शरीर के पुद्गलों में कुछ अभिव्यक्ति प्रकट करती है, जिससे बादर पृथ्वीकाय आदि का समुदाय, दृष्टिगोचर होता है। जिन्हें इस कर्म का उदय नहीं है ऐसे सूक्ष्म जीवों के समुदाय दृष्टिगोचर नहीं होते। यहाँ यह शङ्का होती है कि बादर नामकर्म, जीवविपाकी प्रकृति होने के कारण, शरीर के पुद्गलों में अभिव्यक्ति-रूप अपने प्रभाव को कैसे प्रकट कर सकेगा? इसका समाधान यह है कि जीवविपाकी प्रकृति का शरीर में प्रभाव दिखलाना विरुद्ध नहीं है। क्योंकि क्रोध, जीवविपाकी प्रकृति है तथापि उससे भौंहों का टेढ़ा होना, आँखों का लाल होना, होठों का फड़कना इत्यादि परिणाम स्पष्ट देखा जाता है। सारांश यह है कि कर्म-शक्ति विचित्र है, इसलिये बादर नामकर्म, पृथ्वीकाय आदि जीव में एक प्रकार के बादर परिणाम को उत्पन्न करता है और
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