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कर्मग्रन्थभाग-१
इन्द्रिय-पर्याप्ति, पूर्ण नहीं हो सकती इसलिये तीनों पर्याप्तियाँ ली गई।
अथवा-अपनी योग्य-पर्याप्तियाँ; जिन जीवों ने पूर्ण की हैं, वे जीव, करण-पर्याप्ति कहलाते हैं। इस तरह करण-पर्याप्त के दो अर्थ हैं।
'प्रत्येक, स्थिर, शुभ और सुभग नाम के स्वरूप' पत्तेय तणू पत्तेउदयेणं दंतअट्ठिमाइ थिरं । नाभुवरि सिराइ सुहं सुभगाओ सव्वजणइट्ठो ।।५।।
(पत्तेउदयेणं) प्रत्येक नामकर्म के उदय से जीवों को (पत्तेयतणू) पृथक्पृथक् शरीर होते हैं। जिस कर्म के उदय से (दन्त अट्ठिमाइ) दाँत, हड्डी आदि स्थिर होते हैं, उसे (थिर) स्थिर नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से (नाभुवरि सिराइ) नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं, उसे (सुहं) शुभ नाम कर्म कहते हैं। (सुभगाओ) सुभगनाम कर्म के उदय से, जीव (सव्वजणइट्ठो) सब लोगों को प्रिय लगता है ।।५०॥
भावार्थ प्रत्येक नाम—जिस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो, उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं।
स्थिरनाम-जिस कर्म के उदय से दाँत, हड्डी, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर-अर्थात् निश्चल होते हैं, उसे स्थिरनाम-कर्म कहते हैं।
शुभनाम---जिस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं, वह शुभनाम कर्म, हाथ, सिर आदि शरीर के अवयवों से स्पर्श होने पर किसी को अप्रीति नहीं होती जैसे कि पैर के स्पर्श से होती है, यही नाभि के ऊपर के अवयवों में शुभत्व है।
सुभगनाम-जिस कर्म के उदय से, किसी प्रकार का उपकार किये बिना या किसी तरह के सम्बन्ध के बिना भी जीव सब का प्रीति-पात्र होता है, उसे सुभग नामकर्म कहते हैं। सुस्वरनाम, आदेयनाम, यशःकीर्तिनाम और स्थावर-दशक का स्वरूप
सुसरा महुरसुहझुणी आइज्जा सव्वलोयगिज्झवओ। जसओ जसकित्तीओ थावरदसगं विवज्जत्थं ।।५१।।
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