________________
कर्मग्रन्थभाग-१
(ऊसासनामवसा) उच्छ्वास नामकर्म के उदय से (ऊससणलद्धिजुत्तो) उच्छ्वासलब्धि से युक्त (हवेइ) होता है ।।४४।।
भावार्थ-इस गाथा से लेकर ५१वीं गाथा तक प्रत्येक प्रकृत्तियों के स्वरूप का वर्णन करेंगे। इस गाथा में पराघात और उच्छ्वास नामकर्म का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है
१. जिस कर्म के उदय से जीव, कमजोरों का तो कहना ही क्या है, बड़े-बड़े बलवानों की दृष्टि में भी अजेय समझा जाये उसे ‘पराघात नामकर्म' कहते हैं। मतलब यह है कि, जिस जीव को इस कर्म का उदय रहता है, वह इतना प्रबल मालूम देता है कि बड़े-बड़े बली भी उसका लोहा मानते हैं, राजाओं की सभा में उसके दर्शन मात्र से अथवा वाक्कौशल से बलवान विरोधियों के छक्के छूट जाते हैं।
२. जिस कर्म के उदय से जीव, श्वासोच्छ्वास लब्धि से युक्त होता है उसे 'उच्छ्वास नामकर्म' कहते हैं। शरीर से बाहर की हवा को नासिका द्वारा अन्दर खींचना 'श्वास' कहलाता है और शरीर के अन्दर की हवा को नासिकाद्वारा बाहर छोड़ना 'उच्छ्वास'- इन दोनों कामों को करने की शक्ति उच्छ्वास नामकर्म से होती है।
'आतप नामकर्म' रविबिंबे उ जियंगं तावजुयं आयवाउ न उ जलणे। जमुसिणफासस्स तहिं लेहियवनस्स उदउ ति ।। ४५।।
(आयवाउ) आतप नामकर्म के उदय से (जियंग) जीवों का अङ्ग (तावजुयं) ताप-युक्त होता है और इस कर्म का उदय (रवि बिंबेउ) सूर्य-मण्डल के पार्थिव शरीरों में ही होता है। (नउजलणे) किन्तु अग्निकाय जीवों के शरीर में नहीं होता, (जमुसिणफासस्स तहिं) क्योंकि अग्निकाय के शरीर में उष्णस्पर्श नाम का और (लेहियवनस्स) लोहितवर्ण नाम का (उदउत्ति) उदय रहता है ॥४५॥
भावार्थ-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर, स्वयं उष्ण न होकर भी उष्ण प्रकाश करता है, उसे 'आतप नामकर्म' कहते हैं। सूर्य-मण्डल के बादरएकेन्द्रियपृथ्वीकाय जीवों का शरीर ठण्डा है; परन्तु आतप नामकर्म के उदय से वह (शरीर) उष्ण प्रकाश करता है। सूर्य-मण्डल के एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर अन्य जीवों को आतप नामकर्म का उदय नहीं होता, यद्यपि अग्निकाय के जीवों का शरीर भी उष्ण प्रकाश करता है; परन्तु वह आतप नामकर्म के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org