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कर्मग्रन्थभाग-१
६. सेवार्त संहनन नाम-जिस रचना में मर्कट बन्ध बेठन और खीला न होकर, यों ही हड्डियाँ आपस में जुड़ी हों, उसे सेवार्त संहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संहनन की प्राप्ति होती है उस कर्म का नाम भी सेवार्त संहनन है।
सेवार्त का दूसरा नाम छेदवृत्त भी है। पूर्वोक्त छह संहनन, औदारिक शरीर में ही होते हैं, अन्य शरीरों में नहीं। 'संस्थान नामकर्म के छह भेद और वर्ण नामकर्म के पाँच भेद'
समचउरं सं निग्गोहसाइखुज्जाइ वामणं हुंडं । संठाणां वन्ना किपहनीललोहियहलिद्दसिया ।।४।।
(समचउरंसं) समचतुरस्र, (निग्गोह) न्यग्रोह) न्यग्रोध, (साइ) सादि, (खुज्जाइ) कुब्ज (वामणं) वामन और (हुण्डं) हुण्ड, ये संठाणा) संस्थान हैं (किण्ह) कृष्ण, (नील) नील, (लोहिय) लोहित-लाल, (हलिद्द) हारिद्र-पीला, और (सिया) सित-श्वेत, ये (वन्ना) वर्ण हैं ।।४०॥
भावार्थ-शरीर के आकार को संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से संस्थान की प्राप्ति होती है उस कर्म को 'संस्थान नामकर्म' कहते हैं; इसके छह भेद हैं
१. समचतुरस्रसंस्थान नाम–सम का अर्थ है समान, चतुः का अर्थ है चार और अस्र का अर्थ है कोण-अर्थात् पलथी मार कर बैठने से जिस शरीर के चार कोण समान हों-अर्थात् आसन और कपाल का अन्तर, दोनों जानुओं का अन्तर, दक्षिण स्कन्ध और वाम जानु का अन्तर तथा वाम स्कन्ध और दक्षिण जानु का अन्तर समान हो तो समचतुरस्रसंस्थान समझना चाहिये, अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव शुभ हों उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है, उसे समचतुरस्र संस्थान नामकर्म कहते हैं।
___२. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नाम-बड़ के वृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं, उसके समान, जिस शरीर में, नाभि से ऊपर के अवयव पूर्ण हों किन्तु नाभि से नीचे के अवयव हीन हों तो न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान समझना चाहिये। जिस कर्म के उदय से ऐसे संस्थान की प्राप्ति होती है, उस कर्म का नाम न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान नामकर्म है।
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