Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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* वन्दे वीरम् * श्री देवेन्द्रसूरि विरचित कर्मविपाक नामक
प्रथम कर्मग्रन्थ मङ्गल और कर्म का स्वरूप सिरि वीर जिणं वंदिय, कम्मविवागं समासओवुच्छं। कीरइ जिएण हेउहिं, जेणंतो भण्णए कम्म।।१।।
मैं (सिरिवीरजिणं) श्री वीर जिनेन्द्र को (वंदिय) नमस्कार करके (समासओ) संक्षेप से (कम्मविवागं) कर्मविपाक नामक ग्रन्थ को (वच्छं) कहूँगा, (जेणं) जिस कारण, (जिएण) जीव के द्वारा (हेउहिं) हेतुओं से मिथ्यात्व, कषाय आदि से (कीरइ) किया जाता है-अर्थात् कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य अपने-अपने प्रदेशों के साथ मिला लिया जाता है (तो) इसलिये वह आत्मसम्बद्ध पुद्गलद्रव्य, (कम्म) कर्म (भण्णए) कहलाता है।।१।।
भावार्थ-रागद्वेष के जीतने वाले श्री महावीर को नमस्कार करके कर्म के अनुभव का जिसमें वर्णन है, ऐसे कर्मविपाक नामक ग्रन्थ को संक्षेप से कहूँगा। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन हेतुओं से जीव, कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य को अपने आत्मप्रदेशों के साथ बाँध लेता है इसलिये आत्मसम्बद्ध पुद्गल द्रव्य को कर्म कहते हैं।
श्री वीर-श्री शब्द का अर्थ है लक्ष्मी, उसके दो भेद हैं, अन्तरंग और बाह्य। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि आत्मा के स्वाभाविक गुणों को अन्तरंगलक्ष्मी कहते हैं। १ अशोकवृक्ष, २ सुरपुष्पवृष्टि, ३ दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ आसन, ६ भामण्डक, ७ दुन्दुभि और ८ आतपत्र ये आठ महाप्रातिहार्य हैं, इनको बाह्यलक्ष्मी कहते हैं।
जिन-मोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, आदि अन्तरंग शत्रुओं को जीत कर जिसने अपने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि गुणों को प्राप्त कर लिया है, उसे 'जिन' कहते हैं।
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