Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
कर्मग्रन्थभाग-१
के भी छह भेद हैं-स्पर्शनेन्द्रिय ईहा, रसनेन्द्रिय ईहा इत्यादि। इस प्रकार आगे अपाय और धारणा के भेदों को समझना चाहिये। ईहा का काल, अन्तर्मुहूर्त है।
३. अपाय-ईहा से जाने हुये पदार्थ के विषय में 'यह खम्भा ही है, मनुष्य नहीं' इस प्रकार के धर्म विषयक निश्चयात्मक ज्ञान को अपाय कहते हैं। अपाय और अवाय दोनों का मतलब एक ही है। अपाय का काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है।
४. धारणा-अपाय से जाने हुये पदार्थ का कालान्तर में विस्मरण न हो ऐसा जो दृढ़ ज्ञान होता है उसे धारणा कहते हैं-अर्थात् अपाय से जाने हुये पदार्थ का कालान्तर में स्मरण हो सके, इस प्रकार के संस्कार वाले ज्ञान को धारणा कहते हैं।
धारणा का काल प्रमाण संख्यात तथा असंख्यात वर्षों का है।
मतिज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान भी कहते हैं। जातिस्मरण-अर्थात् पूर्व जन्म का स्मरण होना, यह भी मतिज्ञान ही है। ऊपर कहे हुये अट्ठाईस प्रकार के मतिज्ञान के हर एक के बारह-बारह भेद होते हैं, जैसे- १. बहु, २. अल्प, ३. बहुविध, ४. एकविध, ५. क्षिप्र, ६. चिर, ७. अनिश्रित, ८. निश्रित, ९. सन्दिग्ध, १०. असन्दिग्ध, ११. ध्रुव और १२ अध्रुव। शंख, नगाड़े आदि के कई वाद्यों के शब्दों में से क्षयोपशम की विचित्रता के कारण- १. कोई जीव बहुत से वाद्यों के पृथक्-पृथक शब्द सुनता है; २. कोई जीव अल्प शब्द को सनता है; ३. कोई जीव प्रत्येक वाद्य के शब्द के, तार, मन्द्र आदि बहुत प्रकार के विशेषों को जानता है, ४. कोई साधारण तौर से एक ही प्रकार के शब्द को सुनता है, ५. कोई जल्दी से सुनता है, ६. कोई देरी से सुनता है, ७. कोई ध्वजा के द्वारा देव मन्दिर को जानता है, ८. कोई बिना पताका के ही उसे जानता है, ९. कोई संशय सहित जानता है, १०. कोई बिना संशय के जानता है, ११. किसी को जैसा पहिले ज्ञान हुआ था वैसा ही पीछे भी होता है, उसमें कोई फर्क नहीं होता, उसे ध्रुवग्रहण कहते हैं, १२. किसी के पहले तथा पीछे होने वाले ज्ञान में न्यूनाधिक रूप फर्क हो जाता है, उसे अध्रुवग्रहण कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के अवग्रह, ईहा, अपाय आदि के भेद समझने चाहिये। इस तरह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के २८ को १२ से गुणने पर-तीन सौ छत्तीस ३३६ भेद होते हैं। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं। उनको ३३६ में मिलाने से मतिज्ञान के ३४० भेद होते हैं। अश्रुतनिश्रित के चार-भेद१. औत्पातिकी बुद्धि, २. वैनयिकी, ३. कार्मिकी और ४. पारिणामिकी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org