Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
कर्मग्रन्थभाग- १
'सम्यक्त्व मोहनीय का स्वरूप'
जियअजियपुण्णपावासवसंवरबन्धमुक्खनिज्जरणा । सम्मं खइगाइबहुभैयं ।। १५ । ।
जेणं
सद्दहइ तयं
( जेणं) जिस कर्म से (जियअजियपुण्णपावासवसंवरबन्धमुक्खनिज्जरणा) जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और निर्जरा- इन नौ तत्त्वों पर जीव (सद्दहइ ) श्रद्धा करता है, ( तयं) वह (सम्मं ) सम्यक्त्वमोहनीय है। उसके (खइगाय बहुभेयं) क्षायिक आदि बहुत से भेद हैं ||१५||
भावार्थ - जिस कर्म के बल से जीव को जीवादि नौ तत्त्वों पर श्रद्धा होती है, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। जिस प्रकार चश्मा, आँखों का आच्छादक होने पर भी देखने में रुकावट नहीं पहुँचाता उसी प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय कर्म, आवरण स्वरूप होने पर भी शुद्ध होने के कारण, जीव की तत्त्वार्थ श्रद्धा का विघात नहीं करता; इसी अभिप्राय से ऊपर कहा गया है कि, 'इसी कर्म से जीव को नौ तत्त्वों पर श्रद्धा होती है।
२७
J
सम्यक्त्व के कई भेद हैं। किसी अपेक्षा से सम्यक्त्व दो प्रकार का हैव्यवहारसम्यक्त्व और निश्चयसम्यक्त्व। कुगुरु, कुदेव और कुमार्ग को त्याग कर सुद्गुरु, सुदेव और सुमार्ग का स्वीकार करना, व्यवहार सम्यक्त्व है। आत्मा का वह परिणाम, जिसके कि होने से ज्ञान विशुद्ध होता है, निश्चयसम्यक्त्व है। १. क्षायिकसम्यक्त्व - मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय – इन तीन प्रकृतियों के क्षय होने पर आत्मा में जो परिणाम विशेष होता है, उसे क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं।
२. औपशमिकसम्यक्त्व - दर्शनमोहनीय की ऊपर कही हुई तीन प्रकृतियों के उपशम से, आत्मा में जो परिणाम होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व ग्यारहवें गुणस्थान में वर्तमान जीव को होता है। अथवा जिस जीव ने अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में मिथ्यात्वमोहनीय के तीन पुञ्ज किये हैं और मिथ्यात्व पुञ्ज का क्षय नहीं किया है, उस जीव को यह औपशमिक सत्यक्त्व प्राप्त होता है।
३. क्षायोपशमिकसम्यक्त्व — मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षय तथा उपशम से और सम्यक्त्वं मोहनीय कर्म के उदय से, आत्मा में जो परिणाम होता है, उसे क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं। उदय में आये हुए मिथ्यात्व के पुद्गलों का क्षय तथा जिनका उदय नहीं प्राप्त हुआ है उन पुद्गलों का उपशम, इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org