Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग-१
४३
विपरीत सूक्ष्मनाम, पर्याप्तनाम का प्रतिपक्षी अपर्याप्तनाम, इसी प्रकार शेष प्रकृतियों में भी समझना चाहिये। बस-दशक की गिनती पुण्य-प्रकृतियों में और स्थावर दशक की गिनती पाप-प्रकृतियों में हैं। इन बीस प्रकृतियों को भी प्रत्येकप्रकृति कहते हैं। अतएव पच्चीसवीं गाथा में कही हुई आठ प्रकृतियों को इनके साथ मिलाने से अट्ठाईस प्रकृतियाँ, प्रत्येक प्रकृतियाँ हुई। नाम शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध पूर्ववत् समझना चाहिये जैसे कि
१. स्थावर नाम, २. सूक्ष्म नाम, ३. अपर्याप्त नाम, ४. साधारण नाम, ५. अस्थिर नाम, ६. अशुभ नाम, ७. दुर्भग नाम, ८. दुःस्वर नाम, ९. अनादेय नाम और १०. अयश:कीर्ति नाम। ___'ग्रन्थलाघव के अर्थ, अनन्तरोक्त त्रस आदि बीस प्रकृतियों के अन्दर, कतिपय संज्ञाओं (परिभाषा, सङ्केत) को दो गाथाओं से कहते हैं।'
तसचउथिरछक्कं अथिरछक्कसुहुमतिगथावरचउक्कं । सुभगतिगाइविभासा तदाइसंखाहिं पयडीहिं ।। २८।।
(तसचउ) त्रसचतुष्क, (थिरछक्कं) स्थिरषट्क, (अथिरछक्कं) अस्थिरषट्क (सुहुमतिग) सूक्ष्मत्रिक, (थावरचउक्कं) स्थावरचतुष्क, सुभगत्रिक आदि विभाषाएँ कर लेनी चाहिये, सङ्केत करने की रीति यह है कि (तदाह संखाहिं पयडीहिं) संख्या के आदि में जिस प्रकृति का निर्देश किया गया हो, उस प्रकृति से निर्दिष्ट संख्या की पूर्णता तक, जितनी प्रकृतियाँ मिलें, लेना चाहिये ।।२८॥
भावार्थ-संकेत करने से शास्त्र का विस्तार नहीं बढ़ता इसलिये संकेत करना आवश्यक है। संकेत, विभाषा, परिभाषा, संज्ञा ये शब्द समानार्थक हैं। यहाँ पर संकेत की पद्धति ग्रन्थकार ने यों बतलाई है-जिस संख्या के पहले, जिस प्रकृति का निर्देश किया हो उस प्रकृति को, जिस प्रकृति पर संख्या पूर्ण हो जाय उस प्रकृति को तथा बीच की प्रकृतियों को, उक्त संकेतों से लेना चाहिये; जैसे
त्रस-चतुष्क-१. सनाम, २. बादरनाम, ३. पर्याप्तनाम और ४. प्रत्येकनाम-ये चार प्रकृतियाँ 'वसचतुष्क' इस संकेत से ली गई हैं। ऐसे ही आगे भी समझना चाहिये।
स्थिरषटक-१. स्थिरनाम, २. शुभनाम, ३. सुभगनाम, ४. सुस्वरनाम ५. आदेयनाम और ६. यश:कीर्तिनाम।
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