Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग-१
३५
१. संज्वलनी माया--बॉस का छिलका टेढ़ा होता है, पर बिना मेहनत वह हाथ से सीधा किया जा सकता है, उसी प्रकार जो माया, बिना परिश्रम दूर हो सके, उसे संज्वलनी माया कहते हैं।
२. प्रत्याख्यानी माया-चलता हुआ बैल जब मूतता है, उस मूत्र की टेढ़ी लकीर जमीन पर मालूम होने लगती है, वह टेढ़ापन हदा से धूलि के गिरने पर नहीं मालूम देता, उसी प्रकार जिसका कुटिल स्वभाव, कठिनाई से दूर हो सके, उसकी माया को प्रत्याख्यानी माया कहते हैं।
३. अप्रत्याख्यानी माया–भेड़ के सींग का टेढ़ापन बड़ी मुश्किल से अनेक उपायों के द्वारा दूर किया जा सकता है; उसी प्रकार जो माया, अत्यन्त परिश्रम से दूर की जा सके, उसे अप्रत्याख्यानी माया कहते हैं।
४. अनन्तानुबन्धिनी माया-कठिन बाँस की जड़ का टेढ़ापन किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार जो माया, किसी प्रकार दूर न हो सके, उसे अनन्तानुबन्धिनी माया कहते हैं।
धन, कटुबन्ध, शरीर आदि पदार्थों में जो ममता होती है, उसे लोभ कहते हैं, इसके चार भेद हैं जिन्हें दृष्टान्तों के द्वारा दिखलाते हैं।
१. संज्वलन लोभ–संज्वलन लोभ, हल्दी के रङ्ग के सदृश है, जो सहज ही में छूटता है।
२. प्रत्याख्यानावरण लोभ-प्रत्याख्यानावरण लोभ दीपक के काजल के सदृश है, जो कष्ट से छूटता है।
३. अप्रत्याख्यानावरण लोभ-अप्रत्याख्यानावरण लोभ गाड़ी के पहिये के कीचड़ के सदृश है, जो अति कष्ट से छूटता है।
४. अनन्तानुबन्धी लोभ-अनन्तानुबन्धी लोभ, किरमिजी रङ्ग के सदृश है, जो किसी उपाय से नहीं छूट सकता।
'नोकषाय मोहनीय के हास्य आदि छह भेद' जस्सुदया होइ जिए हास रई अरइ सोग भय कुच्छा । सनिमित्तमन्नहा वा तं इह हासाइमोहणियं ।। २१।।
(जस्सुदया) जिस कर्म के उदय से (जिए) जीव में अर्थात् जीव को (हास) हास्य, (रई) रति, (अरइ) अरति, (सोग) शोक, (भय) भय और (कुच्छा) जुगुप्सा (सनिमित्तं) कारणवश (वा) अथवा (अनहा) अन्यथा-बिना कारण (होइ)
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