Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग-१
प्राप्यकारी हैं, उन्हीं से व्यञ्जनावग्रह होता है, अप्राप्यकारी से नहीं। आँखों में डाला हुआ अंजन, आँख से नहीं दीखता; और मन, शरीर के अन्दर रह कर ही बाहरी पदार्थों को ग्रहण करता है, अतएव ये दोनों प्राप्यकारी नहीं हो सकते।
१. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं।
२. श्रुतज्ञान-शास्त्रों के बाँधने तथा सुनने से जो अर्थज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है।
__ अथवा-मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो, ऐसा ज्ञान, श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे कि घट शब्द के सुनने पर अथवा आँख से घड़े के देखने पर उसके बनाने वाले का, उसके रंग का अर्थात् तत्सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों का विचार करना, श्रुतज्ञान कहलाता है।
३. अवधिज्ञान-इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना, मर्यादा को लिये हुये, रूपवाले द्रव्य का जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
४. मनःपर्यायज्ञान-इन्द्रिय और मन की मदद के बिना, मर्यादा को लिये हुये, संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना, मन:पर्यायज्ञान कहलाता है।
५. केवलज्ञान-संसार के भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल के सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् (एक साथ) जानना, केवलज्ञान कहलाता है।
आदि के दो ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, निश्चयनय से परोक्ष ज्ञान हैं, और व्यवहारनय से प्रत्यक्ष ज्ञान।
अन्त के तीन ज्ञान-अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं। केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष कहते हैं और अवधिज्ञान तथा मन: पर्यवज्ञान को देश प्रत्यक्षा
आदि के दो ज्ञानों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रहती है, किन्तु अन्त के तीन ज्ञानों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं रहती।
व्यञ्जनावग्रह–अव्यक्त-ज्ञानरूप-अर्थावग्रह से पहले होने वाला, अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान, व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों का पदार्थ के साथ जब सम्बन्ध होता है तब 'किमपीदम्' (यह कुछ है) ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है उसे अर्थावग्रह कहते हैं। उसमें पहले होने वाला, अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञान,
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