Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग-१
भावार्थ—पहले कहा गया है कि श्रुतज्ञान के चौदह अथवा बीस भेद होते हैं। यहाँ चौदह भेदों को कहते हैं। गाथा में सात भेदों के नाम दिये हैं, उनसे अन्य सात भेद, सप्रतिपक्षशब्द से लिये जाते हैं। जैसे कि अक्षरश्रुत का प्रतिपक्षी अनक्षरश्रुत; संज्ञिश्रुत का प्रतिपक्षी असंज्ञिश्रुत इत्यादि। चौदहों के नाम ये हैं।
१. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४. असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यकश्रुत, ६. मिथ्याश्रुत, ७. सादिश्रुत, ८. अनादिश्रुत, ९. सपर्यवसितश्रुत, १०. अपर्यवसितश्रुत, ११. गमिकश्रुत, १२. अगमिकश्रुत, १३. अंगप्रविष्टश्रुत और १४. अंगबाह्यश्रुत । १. अक्षरश्रत-अक्षर के तीन भेद हैं, १. संज्ञाक्षर, २. व्यंजनाक्षर और
३. लब्ध्य क्षर।
(क) अलग-अलग लिपियाँ जो लिखने के काम में आती हैं उनको संज्ञाक्षर कहते हैं।
(ख) अकार से लेकर हकार तक के वर्ण उच्चारण के काम में आते हैं, उनको व्यंजनाक्षर कहते हैं-अर्थात् जिनका बोलने में उपयोग होता है, वे वर्ण व्यंजनाक्षर कहलाते हैं।
संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर से भावश्रुत होता है, इसलिये इन दोनों को द्रव्यश्रुत कहते हैं।
(ग) शब्द के सनने या रूप के देखने आदि से, अर्थ को प्रतीति के साथसाथ जो अक्षरों का ज्ञान होता है, उसे लब्ध्यक्षर कहते हैं। २. अनक्षरश्रुत-छींकना, चुटकी बजाना, सिर हिलाना इत्यादि संकेतों से,
औरों का अभिप्राय जानना अनक्षरश्रुत है। ३. संज्ञिश्रुत-जिन पञ्चेन्द्रिय जीवों को मन है, वे संज्ञा तथा उनका श्रुत,
संज्ञिश्रुत है।
संज्ञी का अर्थ है संज्ञा जिनको हो, संज्ञा के तीन भेद हैं-दीर्घकालिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी।
(क) मैं अमुक काम कर चुका, अमुक काम कर रहा हूँ और अमुक काम करूँगा- इस प्रकार का भूत, वर्तमान और भविष्यत् का ज्ञान जिससे होता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा। संज्ञिश्रुत में जो संज्ञी लिये जाते हैं, वे दीर्घकालिकी संज्ञा वाले। यह संज्ञा, देव, नारक तथा गर्भज तिर्यश्च मनुष्यों को होती है।
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