Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
प्रस्तावना
xv.
शब्दों का प्रयोग और दर्शनों में भी पाया जाता है, परन्तु विशेष कर न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में। दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि कई ऐसे शब्द हैं जो सब दर्शनों के लिये साधारण से हैं। जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म मानते हैं उनको पुनर्जन्म की सिद्धि-उपपत्ति के लिये कर्म मानना ही पड़ता है। चाहे उन दर्शनों की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के कारण या चेतन के स्वरूप में मतभेद होने के कारण, कर्म का स्वरूप थोड़ा बहुत भिन्न-भिन्न जान पड़े; परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि सभी आत्मवादियों ने माया आदि उपर्युक्त किसी न किसी नाम से कर्म को अंगीकार किया है। ३. कर्म का स्वरूप
मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही 'कर्म' कहलाता है। कर्म का यह लक्षण उपर्युक्त भावकर्म व द्रव्यकर्म दोनों में घटित होता है, क्योंकि भावकर्म आत्मा का और जीव का-वैभाविक परिणाम है, इससे उसका उपादान रूप कर्ता, जीव ही है और द्रव्यकर्म, जो कि कार्मण जाति के सूक्ष्म पुद्गलों का विकार है उसका भी कर्ता, निमित्तरूप से जीव ही है। भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त। इस प्रकार उन दोनों का आपस में बीजाङ्कर की तरह कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है। ४. पुण्य-पाप की कसौटी
साधारण लोग यह कहा करते हैं कि-'दान, पूजन, सेवा आदि क्रियाओं के करने से शुभ कर्म का (पुण्य का) बन्ध होता है और किसी को कष्ट पहुँचाने, इच्छा-विरुद्ध काम करने आदि से अशुभ कर्म का (पाप का) बन्ध होता है।' परन्तु पुण्य-पाप का निर्णय करने की मुख्य कसौटी यह नहीं है। क्योंकि किसी को कष्ट पहुँचाता हुआ और दूसरे की इच्छा-विरुद्ध काम करता हुआ भी मनुष्य, पुण्य उपार्जन कर सकता है। इसी तरह दान-पूजन आदि करने वाला भी पुण्यउपार्जन न कर, कभी-कभी पाप बाँध लेता है। एक परोपकारी चिकित्सक, जब किसी पर शल्य-क्रिया करता है तब उस मरीज को कष्ट अवश्य होता है, हितैषी माता-पिता ना-समझ लड़के को जब उसकी इच्छा के विरुद्ध पढ़ाने के लिये यत्न करते हैं तब उस बालक को दुःख-सा मालूम पड़ता है; पर इतने ही से न तो वह चिकित्सक अनुचित काम करने वाला माना जाता है और न हितैषी माता-पिता ही दोषी समझे जाते हैं। इसके विपरीत जब कोई, भोले लोगों को ठगने के इरादे से या और किसी तच्छ आशय से दान, पूजन आदि क्रियाओं को करता है तब वह पुण्य के बदले पाप बाँधता है। अतएव पुण्य-बन्ध या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org