Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रस्तावना
जीव में जितनी ज्ञान-कला व्यक्त है, वह परिपूर्ण, परन्तु अव्यक्त ( आवृत) चेतनाचन्द्रिका का एक अंश मात्र है। कर्म का आवरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है । उसी को ईश्वरभाव या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिये ।
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धन, शरीर आदि बाह्य विभूतियों में आत्म- बुद्धि करना, अर्थात् जड़ में अहंत्व करना, बाह्य दृष्टि है। इस अभेद-भ्रम को बहिरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा, कर्म - शास्त्र देता है जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गये हैं उन्हें कर्म - शास्त्र का उपदेश भले ही रुचिकर न हो, परन्तु इससे उसकी सच्चाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता।
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शरीर और आत्मा के अभेद भ्रम को दूर करा कर, उसके भेद - ज्ञान को (विवेकख्याति को ) कर्म शास्त्र प्रकट करता है। इसी समय से अन्तर्दृष्टि खुलती है । अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने में वर्तमान परमात्म भाव देखा जाता है। परमात्मभाव को देखकर उसे पूर्णतया अनुभव में लाना यह, जीव का शिव (ब्रह्म) होना है। इसी ब्रह्म-भाव को व्यक्त कराने का काम कुछ और ढंग से ही कर्म - शास्त्र ने अपने पर ले रक्खा है। क्योंकि वह अभेद-भ्रम से भेद ज्ञान की तरफ झुका कर, फिर स्वाभाविक अभेदध्यान की उच्च भूमिका की ओर आत्मा को खींचता है। बस उसका कर्तव्य-क्षेत्र उतना ही है। साथ ही योगशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य अंश का वर्णन भी उसमें मिल जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र, अनेक प्रकार के आध्यात्मिक शास्त्रीय विचारों की खान है। वही उसका महत्त्व है। बहुत लोगों को प्रकृतियों की गिनती, संख्या की बहुलता आदि से उस पर रुचि नहीं होती, परन्तु इसमें कर्मशास्त्र का क्या दोष? गणित, पदार्थविज्ञान आदि गूढ व रस- पूर्ण विषयों पर स्थूलदर्शी लोगों की दृष्टि नहीं जमती' और उन्हें रस नहीं आता, इसमें उन विषयों का क्या दोष? दोष है समझने वालों की बुद्धि का । किसी भी विषय के अभ्यासी को उस विषय में रस तभी आता है जब कि वह उसमें तल तक उतर जाय ।
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