Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रस्तावना
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इतना की नहीं, बल्कि वर्तमान शरीर के बाद आत्मा का अस्तित्व माने बिना प्रश्न हल ही नहीं हो सकते।
__ बहुत लोग ऐसे देखे जाते हैं कि वे इस जन्म में तो प्रामाणिक जीवन बिताते हैं, परन्तु रहते हैं दरिद्र। और ऐसे भी देखे जाते हैं कि जो न्याय, नीति
और धर्म का नाम सुनकर चिढ़ते हैं; परन्तु होते हैं वे सब तरह से सुखी। ऐसे अनेक व्यक्ति मिल सकते हैं जो हैं तो स्वयं दोषी, और उनके दोषों काअपराधों का-फल भोग रहे हैं दूसरे। एक हत्या करता है और दूसरा पकड़ा जाकर फाँसी पर लटकाया जाता है। एक करता है चोरी और पकड़ा जाता है दूसरा। अब इस पर विचार करना चाहिये कि जिनको अपनी अच्छी या बुरी कृति का बदला इस जन्म में नहीं मिला, उनकी कृति क्या यों ही विफल हो जायगी? यह कहना कि कृति विफल नहीं होती, यदि कर्ता को फल नहीं मिला तो भी उसका असर समाज के या देश के अन्य लोगों पर होता ही है—यह भी ठीक नहीं। क्योंकि मनुष्य जो कुछ करता है वह सब दूसरों के लिये ही नहीं। रात-दिन परोपकार करने में निरत महात्माओं को भी इच्छा, दूसरों की भलाई करने के निमित्त से अपना परमात्मत्व प्रकट करने की ही रहती है। विश्व की व्यवस्था में इच्छा का बहुत ऊँचा स्थान है। ऐसी दशा में वर्तमान देह के साथ इच्छा के मूल का भी नाश मान लेना युक्तिसंगत नहीं। मनुष्य अपने जीवन की आखरी घड़ी तक ऐसी ही कोशिश करता रहता है जिससे कि अपना भला हो। यह नहीं कि ऐसा करने वाले सब भ्रान्त ही होते हैं। बहुत आगे पहुँचे हुये स्थिरचित्त व शान्त प्रज्ञावान् योगी भी इसी विचार से अपने साधन को सिद्ध करने की चेष्टा में लगे होते हैं कि इस जन्म में नहीं तो दूसरे में ही सही, किसी समय हम परमात्मभाव को प्रकट कर ही लेंगे। इसके सिवाय सभी के चित्त में यह स्फुरणा हुआ करती है कि मैं बराबर कायम रहूँगा।
शरीर, नाश होने के बाद चेतन का अस्तित्व यदि न माना जाय तो व्यक्ति का उद्देश्य कितना संकुचित बन जाता है और कार्यक्षेत्र भी कितना अल्प रह जाता है? औरों के लिये जो कुछ किया जाय; परन्तु वह अपने लिये किये जाने वाले कामों के बराबर हो नहीं सकता। चेतन की उत्तर-मर्यादा को वर्तमान देह के अन्तिम क्षण तक मान लेने से व्यक्ति को महत्त्वाकांक्षा एक तरह से छोड़ देनी पड़ती है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में सही, परन्तु मैं अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूँगा–यह भावना मनुष्य के हृदय में जितना बल प्रकट कर सकती है उतना बल अन्य कोई भावना नहीं प्रकट कर सकती। यह भी नहीं
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