Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रस्तावना
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आत्मा, किस तरह कर्म का कर्ता और किस तरह भोक्ता है? इतना होने पर भी वस्तुतः आत्मा में कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व किस प्रकार नहीं है? संक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म रज का पटल किस तरह डाल देते हैं? आत्मा वीर्य-शक्ति के आविर्भाव के द्वारा इस सूक्ष्म रज के पटल को किस तरह उठा फेंक देता है? स्वभावत: शुद्ध
आत्मा भी कर्म के प्रभाव से किस-किस प्रकार मलिन-सा दीखता है? और बाह्य हज़ारों आवरणों के होने पर भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से च्युत किस तरह नहीं होता? वह अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्वबद्ध तीव्र कर्मों को भी किस तरह हटा देता है? वह अपने में वर्तमान परमात्मभाव को देखने के लिये जिस समय उत्सुक होता है उस समय उसके और अन्तरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व (युद्ध) होता है? अन्त में वीर्यवान् आत्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान् कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कण्टक करता है? आत्ममन्दिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणाम, जिन्हें 'अपूर्वकरण' तथा 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं, उनका क्या स्वरूप है? जीव अपनी शुद्ध-परिणाम-तरंगमाला के वैद्युतिक यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर चूर-चूर कर डालता है? कभी-कभी गलांट खाकर कर्म ही, जो कुछ देर के लिये दबे होते हैं, वे ही प्रगतिशील आत्मा को किस तरह नीचे पटक देते हैं? कौन-कौन कर्म, बन्ध की व उदय की अपेक्षा आपस में विरोधी हैं? किस कर्म का बन्ध किस अवस्था में अवश्यम्भावी और किस अवस्था में अनियत है? किस कर्म का विपाक किस हालत तक नियत और किस हालत में अनियत है? आत्मसम्बन्ध अतीन्द्रिय कर्मराज किस प्रकार की आकर्षण शक्ति से स्थूल पुद्गलों को खींचा करता है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्मशरीर आदि का निर्माण किया करता है? इत्यादि संख्यातीत प्रश्न, जो कर्म से सम्बन्ध रखते हैं, उनका सयुक्तिक, विस्तृत व विशद खुलासा जैन कर्म-साहित्य के अतिरिक्त
अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य से नहीं किया जा सकता। यही कर्मतत्त्व के. विषय में जैनदर्शन की विशेषता है।
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