Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग- १
यह ठीक है कि ये सब विचार उसमें संकलना - बद्ध नहीं मिलते, परन्तु ध्यान में रहे कि उस शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य अंश और ही है। उसी के वर्णन में शरीर, भाषा, इन्द्रिय आदि का विचार प्रसंगवश करना पड़ता है। इसलिए जैसी संकलना चाहिये वैसी न भी हो, तथापि इससे कर्मशास्त्र की कुछ त्रुटि सिद्ध नहीं होती; बल्कि उसको तो अनेक शास्त्रों के विषयों की चर्चा करने का गौरव ही प्राप्त है।
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कर्मशास्त्र का अध्यात्म-शास्त्रपन
अध्यात्म-शास्त्र का उद्देश्य, आत्मा-सम्बन्धी विषयों पर विचार करना है। अतएव उसको आत्मा के पारमार्थिक स्वरूप का निरूपण करने के पहले उसके व्यावहारिक स्वरूप का भी कथन करना पड़ता है। ऐसा न करने से यह प्रश्न सहज ही में उठता है कि मनुष्य, पशु-पक्षी, सुखी-दुःखी आदि आत्मा की दृश्यमान अवस्थाओं का स्वरूप, ठीक-ठीक जाने बिना उसके पार का स्वरूप जानने की योग्यता, दृष्टि को कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके अतिरिक्त यह भी प्रश्न होता है कि दृश्यमान वर्तमान अवस्थायें ही आत्मा का स्वभाव क्यों नहीं है? इसलिये अध्यात्म - शास्त्र को आवश्यक है कि वह पहले, आत्मा के दृश्यमान स्वरूप की उपपत्ति दिखाकर आगे बढ़े। यही काम कर्मशास्त्र ने किया है। वह दृश्यमान सब अवस्थाओं को कर्म- जन्य बतलाकर उनसे आत्मा के स्वभाव की जुदाई की सूचना करता है । इस दृष्टि से कर्मशास्त्र, अध्यात्म-शास्त्र का ही एक अंश है। यदि अध्यात्म - शास्त्र का उद्देश्य, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करना ही माना जाय तब भी कर्मशास्त्र को उसका प्रथम सोपान मानना ही पड़ता है। इसका कारण यह है कि जब तक अनुभव में आने वाली वर्तमान अवस्थाओं के साथ आत्मा के सम्बन्ध का सच्चा खुलासा न हो तब तक दृष्टि, आगे कैसे बढ़ सकती है? जब यह ज्ञात हो जाता है कि ऊपर के सब रूप, मायिक या वैभाविक हैं तब स्वयमेव जिज्ञासा होती है कि आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है? उसी समय आत्मा के केवल शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन सार्थक होता है। (परमात्मा के साथ आत्मा का सम्बन्ध दिखाना यह भी अध्यात्म-शास्त्र का विषय है। इस सम्बन्ध में उपनिषदों में या गीता में जैसे विचार पाये जाते हैं वैसे ही कर्मशास्त्र में भी ) | कर्मशास्त्र कहता है कि आत्मा ही परमात्माजीव ही ईश्वर है। आत्मा का परमात्मा में मिल जाना, इसका मतलब यह है कि आत्मा का अपने कर्मावृत परमात्मभाव को व्यक्त करके परमात्मरूप हो जाना। जीव परमात्मा का अंश है इसका मतलब कर्मशास्त्र को दृष्टि से यह है कि
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