Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
कर्मग्रन्थभाग- १
उद्धार के समय, सम्प्रदाय भेद, रूढ़ हो जाने के कारण उद्धृत अंश, दोनों सम्प्रदायों में कुछ भिन्न-भिन्न नाम से प्रसिद्ध है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में १ कर्मप्रकृति, २ शतक, ३ पञ्चसंग्रह और ४ सप्ततिका ये चार ग्रन्थ और दिगम्बर सम्प्रदाय में कर्मप्रकृतिप्राभृत तथा २ कषायप्राभृत ये दो ग्रन्थ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं।
X
(ग) प्राकरणिक कर्मशास्त्र - यह विभाग, तीसरी संकलना का फल है। इसमें कर्म-विषयक छोटे-बड़े अनेक प्रकरण ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इन्हीं प्रकरण ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन इस समय विशेषतया प्रचलित है। इन प्रकरणों के पढ़ने के बाद मेधावी अभ्यासी 'आकर ग्रन्थों' को पढ़ते हैं। 'आकर ग्रन्थों' में प्रवेश करने के लिए पहले प्राकरणिक विभाग का अवलोकन करना जरूरी है। यह प्राकरणिक कर्मशास्त्र का विभाग, विक्रम की आठवीं-नवमीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी तक में निर्मित व पल्लवित हुआ है।
(३) भाषा-भाषा- दृष्टि से कर्मशास्त्र को तीन हिस्सों में विभाजित कर सकते हैं। (क) प्राकृत भाषा में, (ख) संस्कृत भाषा में और (ग) प्रचलित प्रादेशिक भाषाओं में।
(क) प्राकृत - पूर्वात्मक और पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र, इसी भाषा में बने हैं। प्राकरणिक कर्मशास्त्र का भी बहुत बड़ा भाग प्राकृत भाषा ही में रचा हुआ मिलता है। है। मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त उनके ऊपर टीका-टिप्पणी भी प्राकृत भाषा में है।
(ख) संस्कृत – पुराने समय में जो कर्मशास्त्र बना है वह सब प्राकृत ही में है, किन्तु पीछे से संस्कृत भाषा में भी कर्मशास्त्र की रचना होने लगी। ज्यादा कर संस्कृत भाषा में कर्मशास्त्र पर टीका-टिप्पणी आदि ही लिखे गये हैं, पर कुछ मूल प्राकरणिक कर्मशास्त्र दोनों सम्प्रदाय में ऐसे भी हैं जो संस्कृत भाषा में रचे हुए हैं।
(ग) प्रचलित प्रादेशिक भाषाएँ – इनमें मुख्यतया कर्णाटकी, गुजराती और हिन्दी, तीन भाषाओं का समावेश है। इन भाषाओं में मौलिक ग्रन्थ नाम मात्र के हैं। इनका उपयोग मुख्यतया मूल तथा टीका के अनुवाद करने ही में किया गया है। विशेषकर इन प्रादेशिक भाषाओं में वही टीका-टिप्पण - अनुवाद आदि हैं जो प्राकरणिक कर्मशास्त्र - विभाग पर लिखे हुए हैं। कर्णाटकी और हिन्दी भाषा का आश्रय दिगम्बर साहित्य ने लिया है और गुजराती भाषा श्वेताम्बरीय साहित्य में उपयुक्त हुई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org