Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
viii
कर्मग्रन्थभाग-१
कोटि का जीव हो, परन्तु वह अपना विकास करके ईश्वर नहीं हो सकता; अन्तत: जीव, जीव ही है, ईश्वर नहीं और ईश्वर के अनुग्रह के अतिरिक्त संसार से निस्तार भी नहीं हो सकता; इत्यादि।
इस प्रकार के विश्वास में भगवान् महावीर को तीन भूलें जान पड़ी(१) कृत्कृत्य ईश्वर का बिना प्रयोजन सृष्टि में हस्तक्षेप करना। (२) आत्मस्वातंत्र्य का दब जाना। (३) कर्म की शक्ति का अज्ञान।
इन भूलों को दूर करने के लिए व यथार्थ वस्तुस्थिति जानने के लिए भगवान् महावीर ने बड़ी शान्ति व गम्भीरतापूर्वक कर्मवाद का उपदेश दिया।
२. यद्यपि उस समय बौद्ध धर्म भी प्रचलित था, परन्तु उसमें जैसे ईश्वर कर्तत्व का निषेध न था वैसे स्वीकार भी न था। इस विषय में बुद्ध एक प्रकार से उदासीन थे। उनका उद्देश्य मुख्यतया हिंसा को रोकना तथा समभाव फैलाने का था।
उनकी तत्त्व-प्रतिपादन सरणी भी तत्कालीन उस उद्देश्य के अनुरूप ही थी। बुद्ध भगवान् स्वयं, 'कर्म और उसका २विपाक मानते थे, लेकिन उनके सिद्धान्त में क्षणिकवाद को स्थान था। इसलिए भगवान महावीर के कर्मवाद के उपदेश का एक यह भी गूढ़ साध्य था कि 'यदि आत्मा को क्षणिक मात्र मान लिया जाय तो कर्म-विपाक की किसी तरह उपपत्ति हो नहीं सकती। स्वकृत कर्म का भोग और परकृत कर्म के भोग का अभाव तभी घट सकता है, जबकि आत्मा को न तो एकान्त नित्य माना जाय और न एकान्त क्षणिका'
३. आजकल की तरह उस समय भी भूतात्मवादी मौजूद थे। वे भौतिक देह नष्ट होने के बाद कृतकर्म-भोगी पुनर्जन्मवान् किसी स्थायी तत्त्व को नहीं मानते थे यह दृष्टि भगवान महावीर को बहुत संकुचित जान पड़ी। इसी से उसका निराकरण उन्होंने कर्मवाद द्वारा किया।
कर्मशास्त्र का परिचय यद्यपि वैदिक साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी विचार है, पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रन्थ उस साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं १. कम्मना वत्तती लोको कम्मना वत्तती पजा।
कम्मनिबंधना सत्ता रथस्साणीव यायतो।। -सुत्तनिपात, वासेठसुत्त, ६१॥ २. यं कम्मं करिस्सामि कल्याणं वा पापकं वा तस्स दायादो भविस्सामि।
-अंगुत्तरनिकाया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org