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साक्ष्य-अनुशीलन जैनाचार्यों ने तत्कालीन परिस्थितियों का आकलन किया । जैनधर्म मूलतः अहिंसा, तप. त्याग, ज्ञान एवं वैराग्य प्रधान था, परन्तु युग की मांग के अनुरूप जैन विद्वानों ने न केवल संस्कृत में, अपितु प्राकृत एवं अपभ्रंश में भी अनेक प्रकार की रचनाओं का सृजन किया । जैनों की साहित्य साधना सर्वप्रथम लोकरुचि की ओर केन्द्रित हुई । इसीलिए उन्होंने सामान्य जन के योग्य प्राकृत-अपभ्रंश के अतिरिक्त अनेक प्रान्तीय भाषाओं-तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड, गुजराती, राजस्थानी, मराठी, हिन्दी आदि में भी प्रचुर मात्रा में ग्रन्थों का प्रणयन किया। इस साहित्यिक साधना में जैनों को राजवर्ग एवं धनिकवर्ग से भी अत्यधिक प्रोत्साहन मिला। पारम्परिक ब्राह्मण धर्म की लोकप्रियता, प्रभाव एवं जैन-धर्म के प्रति उपेक्षा के कारण जैन मुनियों का ध्यान शास्त्रों, मन्दिरों एवं मूर्तियों के संरक्षण में होने लगा । वे अब इन कार्यों के लिए दान भी ग्रहण करने लगे। जिन आगम-सूत्रों का अध्ययन मात्र जैन साधुओं तक ही नियत था, देशकाल के परिवर्तन तथा गृहस्थ श्रावकों के प्रभाव एवं उनकी रुचि का ध्यान रख कर आगमिक और औपदेशिक प्रकरणों के साथ पौराणिक महाकाव्यों, बहुविध कथा साहित्य, स्तोत्रों तथा पूजापाठों की रचना होने लगी । जैनाचार्यों ने लौकिक धर्म को भी अपने धर्म में आत्मसात कर लिया।
तत्कालीन भारतीय समाज में रामायण तथा महाभारत के पात्र-राम, लक्ष्मण, सीता और कौरव, पाण्डव, कृष्ण, बलराम आदि-समाज में लोकप्रिय एवं पूज्य थे। जैन पुराणों के रचना-काल में पारम्परिक पुराणों का समाज में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। इसी समय पारम्परिक पुराणों को अन्तिम रूप दिया जा रहा था। जैनाचार्यों ने जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने तथा सर्वसाधारण में इसे प्रचलित करने के उद्देश्य से रामायण एवं महाभारत की कथावस्तु तथा पात्रों को लेकर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा प्रादेशिक भाषाओं में ग्रन्थों की रचना की। जैन विद्वानों ने न केवल रामायण एवं महाभारत की कथाओं एवं पात्रों को जैन पुराणों में निबद्ध किया, अपितु पारम्परिक पुराणों के कतिपय नामों को भी जैन पुराणों का नाम दिया, उदाहरणार्थ-पद्म पुराण, महा पुराण । उन्होंने अलौकिक तथा अविश्वसनीय घटनाओं के स्थान पर सरल, तर्कसंगत तथा बोधगम्य घटनाओं को अपने पुराणों में स्थान दिया। यह साहित्य सामान्यतया दिगम्बरों में 'पुराण' तथा श्वेताम्बरों में 'चरित्र' या 'चरित' नाम से अभिहित है।' प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय 'जैन पुराणों १. विण्टरनित्ज-ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, नई दिल्ली, १६७७,
पृ० ४६१; के० ऋषभचन्द्र-जैन पुराण साहित्य, श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रन्थ, भाग १ बम्बई १६६८, पृ० ७२
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