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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
हो गये थे । पारम्परिक पुराणों को अन्तिम रूप दिया जा रहा था । विभिन्न धर्मो में परस्पर आदान-प्रदान और सम्मिश्रण अधिक बढ़ रहा था। जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और बौद्धों के भगवान् बुद्ध को ब्राह्मण धर्म के अवतारों में गृहीत कर लिया गया था । धार्मिक विश्वासों में परिवर्तन हो रहा था ।
उपर्युक्त तत्कालीन परिस्थितियों के अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि पारम्परिक पुराण जैन एवं बौद्ध धर्म को अनुत्साहित कर रहे थे । पारम्परिक पुराणों में बुद्ध को अवतार मानने तथा बौद्ध धर्म का समाहार करने की प्रवृत्ति अधिक दिखाई देती है । मायामोह आख्यान के माध्यम से बौद्ध धर्म को पौराणिक धर्म में अंगीभूत करने की चेष्टा की गई है ।' विष्णु पुराण में वर्णित है कि कंक, कोंकण, वेंकट, कूठक, दक्षिणी कर्नाटक प्रायद्वीप के पश्चिमी भाग में ऋषभ के अनुयायी नग्न अर्हत् रहते थे। ये लोग कलयुग में व्यवस्था को धर्म के कर्मकाण्ड, यज्ञ एवं वेदों का विरोध करेंगे । ये दैत्य मयूरपिच्छधारी दिगम्बर तथा मुण्डितकेश मायामोह नामक असुर मधुरवाणी में संशयात्मक वेद विरोधी मतों का उपदेश करते हुए पाया गया है । मायामोह को जैन धर्म का प्रवर्तक वर्णित किया है । २ भागवत पुराण के पाँचवें स्कन्ध के प्रथम छ: अध्यायों में ऋषभ देव के वंश, जीवन व तपश्चरण का वृत्तान्त उपलब्ध है, जो मुख्य-मुख्य बातों में जैन पुराणों के वर्णनों से साम्यता रखता है ।
यह समीक्षा का विषय है कि क्या जैन पुराणों का उद्भव पारम्परिक पुराणों द्वारा जैन एवं बौद्ध धर्मों के अनुत्साहित करने से हुआ ? वस्तुतः बौद्धों ने न तो पुराण नामधारी कोई ग्रन्थ लिखा और न ही उसे लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया । क्योंकि बौद्धों के क्रियाकलाप का क्षेत्र भारत के अतिरिक्त बाहरी देश भी थे । इस प्रकार उनकी लोकप्रियता बाहर अधिक बढ़ती गयी। इसके विपरीत जैनों के क्रियाकलाप का केन्द्र भारत था । जैन धर्म को व्यावहारिक रूप प्रदानार्थ तथा उसे सर्वसाधारण तक सुप्रचलित करने के लिए जैन आचार्यों ने 'पुराण' नामधारी ग्रन्थों का भी सृजन किया ।
ध्वस्त कर ब्राह्मण अर्हत् कहे गये हैं । को दैत्यों के प्रति
१. द्रष्टव्य, राय - पौराणिक धर्म एवं समाज, इलाहाबाद, १६६८ पृ० ३५
२. एच० एच० विल्सन -द विष्णु पुराण - ए सिस्टम ऑफ हिन्दू मैथालोजी एण्ड ट्रेडीसन, कलकत्ता, १६६१, पृ० १३३ तथा २७०-२७१
३. उद्धृत, हीरालाल जैन - भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, भोपाल,
१६४२, पृ० ११
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