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ज्ञानार्णवः
६. ज्ञानार्णव व उपासकाध्ययन-उपासकाध्ययन सोमदेव सूरि विरचित यशस्तिलक चम्पूका एक अंश है । इसमें श्रावकके आचारका विस्तारसे निरूपण किया गया है। प्रसंगवश यहाँ अनेक मत-मतान्तरोंकी समीक्षा भी की गयी है । इस प्रसंगमें वहाँ ये दो श्लोक कहे गये हैं
ज्ञानहीने क्रिया पुंसि परं नारभते फलम। तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥२१ । ज्ञानं पनी क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृदयम् ।
ततो ज्ञान-क्रिया-श्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ॥२२ ये दोनों श्लोक प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च' इस निर्देशके साथ क्रमसे 313 व 314- संख्या के अन्तर्गत उद्धृत किये गये हैं। यहाँ जो उनमें थोड़ा-सा पाठभेद दिखता है वह पाटण प्रतिके आधारसे है, अन्य प्रतियोंके आधारसे वह भी नहीं है। इसी उपासकाध्ययनमें आगे सम्यग्दर्शनके पचीस दोषोंका निर्देश करते हुए यह कहा गया है
मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥२४१ यह इलोक ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च' कहकर 375 संख्याके अन्तर्गत उद्धृत किया गया है।
उपासकाध्ययन (७१९ ) में मनको स्थिर करने के लिए शरीरगत इन ध्यानस्थानोंका निर्देश किया गया है-नाभि, चित्त, नासिकाका अग्रभाग, नेत्र, मस्तक और शिर ।
ज्ञानार्णवमें प्रथमतः ( 1467) निश्चल मनको ललाटदेश ( मस्तक ) में लीन करने की प्रेरणा की गयी है। तत्पश्चात् 'अथवा' कहते हुए आगे जिन अन्य ध्यानस्थानोंका निर्देश किया गया है ( 1468) उनमें पूर्वोक्त उपासकाध्ययनमें निर्दिष्ट वे सभी स्थान गभित हैं। उनके अतिरिक्त यहाँ श्रवणयुगल, मुख और भ्रकुटीयुगल ये ध्यानस्थान अधिक कहे गये हैं। उपासकाध्ययनमें निर्दिष्ट 'चित्त' से हृदयका ग्रहण समझना चाहिए।
७. ज्ञानार्णव व योगसारप्राभृत-जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, आ. अमितगति प्रथम विरचित योगसारप्राभृतका 'येन येनैव भावेन' इत्यादि श्लोक (९-५१) ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च'के साथ 2076 संख्याके अन्तर्गत उद्धृत किया गया है। यद्यपि यह श्लोक तत्त्वानुशासनमें (१९१ ) भी पाया जाता है, पर ज्ञानार्णवमें वह जिस स्वरूपमें उद्धृत है वह उसका स्वरूप योगसारप्राभृतसे अधिक सम्बद्ध है, क्योंकि योगसारप्राभृतको तुलनामें दोनोंके तृतीय चरणमें ही भेद हुआ है, जबकि तत्त्वानुशासनकी तुलनामें एक तृतीय चरण ही समान है, शेष तीन चरणोंमें भिन्नता है।
८. ज्ञानार्णव व अमितगति-श्रावकाचार-आचार्य अमितगति द्वितीय द्वारा विरचित उपासकाचार १५ परिच्छेदों में विभक्त है। इसके अन्तिम पन्द्रहवें परिच्छेदमें ध्यानका निरूपण किया गया है। यहाँ सर्वप्रथम सिद्धिके इच्छुक भव्य जीवोंसे साधक, साधना, साध्य और फल इन चारके जान लेने की प्रेरणा की गयी है। इनमें साधक संसारी जीव, साधन ध्यान, साध्य मोक्ष और फल अविनश्वर सुख कहा गया है (१५, ७-८)। आगे ध्यानके प्रसंगमें उसके भेद-प्रभेदों व स्वामियोंको दिखलाते हुए ( १५, ९-१८) उसकी अभिलाषा करनेवाले जीवके लिए ध्याता, ध्येय, विधि और फल इनके जान लेनेकी प्रेरणा की गयी है (१५-२३ ) व तदनुसार ही क्रमसे उनका विवेचन भी किया गया है।
इस प्रकार उनका विवेचन करते हए ध्यानके आलम्बनभूत ध्येयके प्रसंगमें उसे पदस्थ, पिण्डस्थ,
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