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है। जिसे जैसा दिखाई देता है, वह अपनी उसी पकड़ को पकड़ लेता है। उसमें उसका क्या दोष?
जिसे मोक्ष में जाना है, उसे तो जगत् पागल कहे, मारे, निकाल दे, तब भी उसे हारकर वहाँ पर बैठ जाना चाहिए। ज्ञानियों का तरीका है, सामनेवाले को जितवाकर जगत् को जीत लेना! इसलिए जगत् में हारने की कला सीखने जैसी है। तभी इस जगत् से छूटा जा सकता है, वर्ना जब तक जीतने जाएगा, तब तक वह हारा हुआ ही कहा जाएगा। ज्ञानियों की यह खोज वास्तव में अडोप्ट (अंगीकार) करने जैसी है।
ज्ञानीपुरुष खुद अबुध हो चुके होते हैं, जबकि जगत् तो खुद को अक्कल वाला कहलवाने के लिए या बनने के लिए घूमता है!
बहुत हुआ तो कोई एकाध सब्जेक्ट में ‘एक्सपर्ट' बन सकता है। उसके बजाय 'सब में बेवकूफ' बनना सब से अच्छा! जो सभी में बेवकूफ होता है, उसकी गाड़ी अच्छी चलती है क्योंकि हर एक चीज़ के एक्सपर्ट किराए पर मिलते हैं। वकील किराए पर मिलते हैं, डॉक्टर, सी.ए, सोलिसिटर... अरे, कारखाने चलाने के लिए मैनेजर भी किराए पर मिलते हैं!
_ 'मुझमें कोई बरकत नहीं है' कहा कि हम इन लोगों के रेसकोर्स में से मुक्त हो जाएँगे। कोई दूसरा हमें बिना बरकत वाला कहे, उसके बजाय खुद ही न कह दें? तो मुक्त तो हो पाएँगे इस जगत् से!
कुल मिलाकर रेस-कोर्स में से क्या सार निकाला? आज पहला नंबर आए तब भी वापस कभी न कभी अंतिम नंबर तो आएगा ही। इसलिए ऊपर से भगवान आकर भी घुड़दौड़ में दौड़ने के लिए ललचाएँ तो भी मना कर देना!
रेस-कोर्स में से निकलते ही व्यक्तित्व उभरने लगेगा। रेस-कोर्स का और पर्सनालिटी का कभी मेल नहीं बैठता!
जिसने अक्रम विज्ञान का छोटा और सटीक कोर्स कर लिया,
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