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गुरुतम बनने जाएँ तो रेस-कोर्स खड़ा हो जाता है। लघुतम में तो स्पर्धा ही नहीं है न!
गुरुतम की घुड़दौड़ में दौड़-दौड़कर हाँफकर मर जाते हैं सब, और इनाम मिलता है एक को ही!
टीका करना और स्पर्धा, वे अहंकार के मूल गुण हैं। हर कोई अपने-अपने कर्म भोग रहा है, उसमें किसी की टीका कैसे की जा सकती है? टीका करना अर्थात् खुद अपना ही बिगाड़ना!
कार्यकुशलतावाले तो घुड़दौड़ में हाँफकर मर जाते हैं। उसके बजाय तो, कुछ कुशलता है ही नहीं, ऐसा करके एक तरफ बैठे रहने में मज़ा है। ज्ञानीपुरुष तो साफ-साफ कह देते हैं कि, 'मुझे दाढ़ी बनानी भी नहीं आती, इस उम्र में भी!'
___कार्यकुशलता के अहंकार को लेकर घूमनेवालों को मालूम नहीं है कि उनकी भूलें तो इस कुदरत की दी हुई 'फैक्टर ऑफ सेफ्टी' के नीचे दब जाती हैं और खुद ऐसा मान लेता है कि मुझे कितना अच्छा करना आ गया!
__ जब तक कार्यकुशलता का अहंकार है, तब तक उसे वह कार्य करते ही रहना पड़ेगा। जिसे कुछ आता ही नहीं, उसे क्या करना है? कार्यकुशलता अहंकार के आधार पर टिकी हुई है। जहाँ पर अहंकार है ही नहीं - खत्म हो चुका है, वहाँ पर कार्यकुशलता किस प्रकार टिक सकेगी?
ज्ञानीपुरुष तो खुद के लिए बार-बार ऐसा कहते हैं कि 'मुझे कुछ भी नहीं आता,' इसके बावजूद भी लोग मानें तब न? लोग तो ऐसा ही कहते हैं कि 'दादा को तो सबकुछ आता है।' तब वे खुद ऐसा कहते हैं कि, “मैं तो आत्मा की बात जानता हूँ। 'आत्मा' ज्ञातादृष्टा है ऐसा जानता हूँ। 'आत्मा' जो कुछ भी देख सकता है, वह 'मैं' देख सकता हूँ। अन्य कुछ भी नहीं आता।"
___ सामनेवाले खींचे तब ज्ञानी धीरे से ढीला छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। सामने वाला खींचे और खुद भी खींचे तो प्रगति रुंध जाती
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