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प्रस्तावना
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जीवसिद्धि-आचार्य समन्तभद्रने 'जीवसिद्धि' नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थकी रचनाकी थी, ऐसा उल्लेख पाया जाता है। किन्तु वह वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है। उक्त ग्रन्थमें विस्तारसे जीवकी सिद्धि कीगयी होगी। आप्तमीमांसामें भी निम्नप्रकारसे जीवकी सिद्धि कीगयी है। _ 'जीवशब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत्' जीव शब्द अपने बाह्य अर्थ सहित है, क्योंकि वह एक संज्ञाशब्द है। जो संज्ञा शब्द होता है उसका बाह्म अर्थ भी पाया जाता है, जैसे हेतुशब्द । जिसप्रकार हेतुशब्दका धूमादिरूप बाह्य अर्थ पाया जाता है, उसीप्रकार जीवशब्दका भी जीवशब्दसे भिन्न चेतनरूप बाह्य अर्थ विद्यमान है। इस प्रकार संक्षेपमें जीवसिद्धि कोगयी है।
वस्तुमें उत्पादादित्रयकी सिद्धि-आचार्य समन्तभद्रके पहले आचार्य कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छने द्रव्यको केवल सामान्यरूपसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप बतलाया था। उसका यक्ति और दृष्टान्तके द्वारा विशेषरूपसे प्रतिपादन समन्तभद्रकी अपनी विशेषता है। उन्होंने बतलाया है कि वस्तुका सामान्यरूपसे न तो उत्पाद होता है और न विनाश । किन्तु उत्पाद और विनाश विशेषरूपसे ही होता है। अर्थात् द्रव्यका उत्पाद और विनाश नहीं होता है। उत्पाद और विनाश केवल पर्यायका ही होता है। तथा विनष्ट और उत्पन्न पर्यायोंमें द्रव्यका अन्वय बराबर बना रहता है। स्याद्वाद और सप्तभंगोको सुनिश्चित व्यवस्था
समन्तभद्रके पहले आगममें 'सिया अस्थि दव्वं, सिया णत्थि दव्वं' इत्यादिरूपसे स्याद्वाद और सप्तभंगीका उल्लेख अवश्य मिलता है, किन्तु उसकी निश्चित व्याख्या, अनेक एकान्तोंमें सप्तभंगीका प्रयोग और युक्तिके बलपर वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध करना समन्तभद्रकी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और उन अनन्त धर्मोका प्रतिपादन स्याद्वादके द्वारा किया जाता है । समन्तभद्रने बतलाया है कि वस्तुमें सत्, असत्, उभय और अनुभय ये चार कोटियाँ ही नहीं हैं, किन्तु सात कोटियाँ ( सप्तभंगी ) हैं। प्रत्येक धर्मका प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी १. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ॥
पञ्चास्तिकाय गाथा १४
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