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कारिका-२]
तत्त्वदीपिका देवागमन आदिको प्रत्यक्ष देखा नहीं है । अतः जो लोग आगमको प्रमाण नहीं मानते हैं वे देवागमन आदिके द्वारा आप्तको स्तुतिके योग्य नहीं मान सकते। आगमको प्रमाण माननेवालोंके यहाँ भी देवागमन आदि चिह्न आप्तके महत्त्वका सूचक नहीं हो सकता है। क्योंकि उक्त चिह्न विपक्ष ( मस्करी आदि )में भी पाया जाता है। इस प्रकार देवागमन आदि विभूतिके द्वारा भगवान् स्तुत्य सिद्ध नहीं होते हैं।
भगवान् पुनः प्रश्न करते हैं कि मस्करी आदिमें नहीं पाये जानेवाले अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग विग्रहादि महोदयके द्वारा मुझे स्तुत्य मानने में क्या आपत्ति है ? इसके उत्तरमें समन्तभद्राचार्य कहते हैं
अध्यात्म बहिरप्येषविग्रहादिमहोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥२॥ हे भगवन् ! आपमें शरीर आदिका जो अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग अतिशय पाया जाता है वह यद्यपि दिव्य और सत्य है, किन्तु रागादियुक्त देवोंमें भी उक्त प्रकारका अतिशय पाया जाता है । अतः उक्त अतिशयके कारण भी आप स्तुत्य नहीं हो सकते हैं।
भगवान्के शरीरमें निःस्वेदत्व, मल-मूत्र रहितपना आदि जो अतिशय पाया जाता है वह अन्तरङ्ग अतिशय है, क्योंकि इसमें परकी अपेक्षा नहीं होती है। गन्धोदकवृष्टि, पुष्पवृष्टि आदि देवकृत होनेसे बहिरङ्ग अतिशय भी भगवान्में पाया जाता है। उक्त दोनों प्रकारका अतिशय मायावी मस्करी आदिमें नहीं पाया जाता है, अतः वह सत्य है। ऐसा अतिशय चक्रवर्ती आदिमें भी नहीं पाया जाता है, अतः वह दिव्य है। ऐसे सत्य और दिव्य अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग अतिशयोंके द्वारा भी हम भगवान्को स्तुत्य मानने में असमर्थ हैं । क्योंकि उक्त प्रकारका अतिशय रागादि-संयुक्त देवोंमें भी पाया जाता है। यदि हम अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग विग्रहादि महोदयके द्वारा आप्तको स्तुत्य मानें तो देवोंको भी स्तुत्य मानना चाहिए। क्योंकि देव भी उक्त अतिशयवाले होते हैं। 'घातियाकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाला जैसा अतिशय आप्तमें पाया जाता है वैसा देवोंमें नहीं पाया जाता है। अतः आप्त ही स्तुत्य हैं, देव नहीं', इस प्रकारका कथन आगमाश्रित होने के कारण युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है।
पुनः भगवान् कहते हैं कि यदि मैं देवागम आदि विभूति तथा विग्र
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