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कारिका-३ ] तत्त्वदीपिका
५३ जक ) में रहनेवाला जो व्यापार है उसीका नाम भावना है। भावना दो प्रकारकी होती है-शाब्दीभावना और आर्थीभावना । 'यजेत्' पदमें जो लिङ्लकार है उससे होनेवाली भावनाको शाब्दी भावना कहते हैं, और शाब्दी भावनासे पुरुषमें होनेवाली भावनाको आर्थी भावना कहते हैं। भादृमतके माननेवाले मीमांसक कहते हैं कि 'यजेत्' क्रियापदका अर्थ यज्ञ करना नहीं है, किन्तु यज्ञ करनेकी भावना करना है । जो व्यक्ति स्वर्गकी इच्छा करता है उसे अग्निष्टोम यज्ञ करनेकी भावना करना चाहिये । 'मुझं अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिये' इस प्रकारके विचारका नाम भावना है। जिस समय यज्ञ करनेका इच्छुक व्यक्ति 'यजेत्' क्रियापदको सुनता है उस समय लिङ्लकार जन्य शाब्दी भावना उत्पन्न होती है। इसके बाद पुरुषका यज्ञके लिए व्यापार विशेष होता है। उसीका नाम आर्थी भावना है।
नियोगका अर्थ है-'नियुक्तोऽहमनेनाग्निष्टोमादिवाक्येनेति निरवशेषो योगो हि नियोगः' अर्थात् 'स्वर्गकी इच्छा करनेवाला अग्निष्टोम यज्ञ करे' इत्यादि वाक्योंके श्रवणसे मैं इस कार्य में लग गया है. इसप्रकार कार्यमें पूर्णरूपसे तत्परताका नाम नियोग है। भावनावादी अग्निष्टोम यज्ञ करनेकी भावनामात्र करता है, किन्तु नियोगवादी अग्निष्टोम यज्ञ करने में प्रवृत्त हो जाता है। अतः यज्ञ करने में लग जाना, इसीका नाम नियोग है। नियोगवादियोंके अनुसार नियोगके भी कई अर्थ किये गये हैं । कोई शुद्ध कार्यको नियोग कहते हैं, तो कोई शुद्ध प्रेरणाको ही नियोग मानते हैं। इसीप्रकार नियोगके और भी कई अर्थ किये गये हैं-प्रेरणा सहित कार्य, कार्य सहित प्रेरणा, कार्यको ही उपचारसे प्रवर्तक मानना, कार्य और प्रेरणाका सम्बन्ध, कार्य और प्रेरणाका समुदाय, कार्य और प्रेरणा दोनोंसे रहित होना, यज्ञकर्ममें प्रवृत्त होनेवाला पुरुष, भविष्यमें होनेवाला भोग्यपदार्थ, ये सब नियोग माने गये हैं। इसप्रकार नियोगके ग्यारह अर्थ किये गये हैं।
वेदान्तियोंके अनुसार 'यजेत्' इस क्रियापदका अर्थ विधि है। विधिका अर्थ है ब्रह्म। वेदान्तमतके अनुसार संसारमें केवल ब्रह्म ही सत्य है, अन्य समस्त पदार्थ मायिक ( मिथ्या ) हैं। ब्रह्मके अतिरिक्त नाना जीवोंकी भी पृथक् सत्ता नहीं है। मायाके कारण संसारी जोव अपनेको ब्रह्मसे पृथक् समझते हैं, किन्तु जिस समय 'अहं ब्रह्मोऽस्मि' 'मैं ब्रह्म हूँ' इसप्रकारका सम्यग्ज्ञान हो जाता है, उसी समय जीव अपनी पृथक् सत्ता
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