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कारिका-९]
तत्त्वदीपिका तत्त्वकी कल्पना भी युक्तिसंगत नहीं है । प्रत्यक्षसे घट, पट आदि विशेषोंका प्रतिभास होता है। वेदान्तियोंके अनुसार भी प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंका स्वभाव निषेध करनेका नहीं है। अतः प्रत्यक्षादिके द्वारा विशेषोंका निषेध नहीं किया जा सकता है।
वेदान्तवादियोंके अनुसार ब्रह्म की ही एकमात्र सत्ता है। वे किसी प्रमाणसे घट, पट आदि विशेषोंका निराकरण नहीं करते हैं। किन्तु उनका कहना है कि भेदवादियों द्वारा विशेषोंको सिद्ध करनेके लिए जो साधन दिये जाते हैं, उन्हें सदोष होनेसे विशेषोंका निराकरण स्वयं हो जाता है । भेदवादियोंके अनुसार कारणोंकी अनेकता कार्यमें अनेकताकी साधक है। किन्तु वेदान्ती कारणोंमें अनेकताको मानते ही नहीं हैं। वे कहते हैं कि जो लोग प्रतिभास ( ज्ञान )के भेदसे नाना पदार्थ मानते हैं, उनका वैसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि वस्तुके एक होनेपर भी भ्रमवश उसका नानारूपसे प्रतिभास देखा जाता है । कहा भी है
यथा विशद्धमाकाशं तिमिरोपप्लतो नरः । संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥
बृहदा० भा० वा० ३।५।४३ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति ॥
-बृहदा० भा० वा० ३।५।४४ आकाशको विशुद्ध और एक होने पर भी जिसको तिमिर रोग हो गया है वह नर आकाशमें नाना प्रकारकी रेखायें देखता है। उसी प्रकार अज्ञानी जन निर्मल और भेद रहित ब्रह्मको कलुषित और भेदरूप देखता है। ____ ब्रह्मके एक होने पर भी चक्षु आदि इन्द्रियजन्य ज्ञानके भेदसे उसमें रूप आदिका प्रतिमास होता है । जैसे कि ज्ञानाद्वैतवादीके यहाँ एक ज्ञानमें भी ग्राह्याकार और ग्राह्यकाकारके भेदका प्रतिभास होता है। नैयायिक इतरेतराभावके द्वारा पदार्थोंमें भेद सिद्ध करते हैं। घट और पटमें इतरेतराभाव है, इसलिये घट और पट भिन्न भिन्न हैं । किन्तु इतरेतराभावका ज्ञान भी काल्पनिक है। वस्तुको छोड़कर अभाव कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। प्रमाणों के द्वारा भावरूप पदार्थका ही ग्रहण होता है। नैयायिक मानते हैं कि प्रयत्क्षके द्वारा भूतलमें घटाभावका ग्रहण होता है। उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। यदि प्रत्यक्षके द्वारा अभावका
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