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कारिका-७९] तत्त्वदीपिका
२६३ होता है, फिर भी चक्षुको नहीं जानता है, एक ही अर्थको जाननेवाले प्रथम ज्ञानसे जो द्वितीय ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रथम ज्ञानसे उत्पन्न भी है, और प्रथम ज्ञानके आकार भी है, फिर भी प्रथम ज्ञानको नहीं जानता है। शुल्क शंखमें जो पीताकार ज्ञान होता है, उसमें तदुत्पत्ति, ताद्रप्य और तदध्यवसाय होनेपर भी वह मिथ्या है। इसलिए तदुत्पत्ति आदिको यथार्थ ज्ञानका लक्षण मानना सदोष एवं मिथ्या है। नैयायिक मानते हैं कि अर्थ ज्ञानका निमित्त कारण होता है, अर्थात् ज्ञान इन्द्रिय, और पदार्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न होता है। यह लक्षण भी सदोष है। क्योंकि इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न ज्ञान अर्थको ही जानता है, इन्द्रियको नहीं। चाक्षुषज्ञान चक्षुको नहीं जानता है। इसलिए ज्ञानमात्र ही तत्त्व है, ज्ञानके अतिरिक्त अन्य कोई वेद्य नहीं है। ज्ञान ही स्वयं वेद्य और वेदक है।
ज्ञानाद्वैतवादीका उक्त कथन तब ठीक होता, जब वह किसी प्रमाणकी सत्ता स्वीकार करता। प्रमाणके अभावमें स्वपक्षसिद्धि, और परपक्षदूषण किसी भी प्रकार संभव नहीं है।
विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञानको क्षणिक, अनन्यवेद्य, और नानासन्तानवाला मानते हैं, किन्तु किसी प्रमाणके अभावमें इस प्रकारके ज्ञानकी सिद्धि कैसे हो सकती है। स्वसंवेदनसे ज्ञानाद्वैतकी सिद्धि मानना ठीक नहीं है। जैसे नित्य, एक और सर्ववेद्य ब्रह्मकी सिद्धि स्वसंवेदनसे नहीं होती है, वैसे ही क्षणिकादिरूप ज्ञानकी सिद्धि भी स्वसंवेदनसे नहीं हो सकती है। ज्ञानका स्वसंवेदन मान भी लिया जाय, किन्तु निर्वि कल्पक होनेसे वह तो असंवेदनके समान ही होगा। तथा उसमें प्रमाणान्तर (विकल्पज्ञान)की अपेक्षा मानना ही पड़ेगी। विज्ञानाद्वैतवादी. क्षणिक आदिरूप जिस प्रकारके ज्ञानका वर्णन करते हैं उस प्रकारका ज्ञान कभी भी अनुभवमें नहीं आता है। इसलिये स्वसंवेदनसे विज्ञानमात्रकी सिद्धि नहीं होती है। अनुमानसे भी उसकी सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि हेतु और साध्यमें अविनाभावका ज्ञान कराने वाला कोई प्रमाण नहीं है । निर्विकल्पक होनेसे तथा निकटवर्ती पदार्थोंको विषय करनेके कारण प्रत्यक्षसे अविनाभावका ज्ञान नहीं हो सकता है। अनुमानसे अविनाभावका ज्ञान करने में अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष आते हैं । और मिथ्याभूत विकल्पज्ञानके द्वारा विज्ञानमात्रकी सिद्धि करने पर बहिरर्थकी सिद्धि भी उसी प्रकार क्यों नहीं हो जायगी।
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