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कारिका-८० ]
तत्त्वदीपिका
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और ज्ञानकी उपलब्धि एक साथ देखी जाती है' । नील पदार्थ और नीलज्ञान भिन्न भिन्न नहीं हैं । जैसे तिमिर रोग वालेको एक चन्द्रमें भ्रान्तिके कारण दो चन्द्रका दर्शन हो जाता है, वैसे ही एक ही विज्ञानमें भ्रान्तिके कारण अर्थ और ज्ञानकी प्रतीति हो जाती है । अतः सहोपलम्भनियमरूप हेतुके द्वारा ज्ञान और अर्थ में अभेदरूप साध्यकी सिद्धि होती है ।
विज्ञानाद्वैतवादियोंका उक्त कथन समीचीन नहीं है । क्योंकि सहोपलम्भनियमरूप हेतु से ज्ञान और अर्थ में अभेद सिद्धि करने पर प्रतिज्ञादोष होता है । यहाँ प्रतिज्ञादोषका तात्पर्य स्ववचन विरोधसे है । साध्ययुक्त पक्षके वचनको प्रतिज्ञा कहते हैं । विज्ञप्तिमात्र तत्त्वके मानने पर धर्म, धर्मी, हेतु, दृष्टान्त आदिका भेद कैसे बन सकता है । यहाँ अर्थ और ज्ञान धर्मी है, अभेद साध्य अथवा धर्म है, सहोपलम्भनियम हेतु है, और द्विचन्द्र दृष्टान्त है | विज्ञानमात्रके सद्भावमें इन सबका सद्भाव नहीं हो सकता है । धर्म और धर्मीके भेदके वचनका तथा हेतु और दृष्टान्तके भेदके वचनका ज्ञानाद्वैतके वचन के साथ विरोध है । अर्थात् ज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान और अर्थ में अभेदकी सिद्धि करता हुआ भी हेतु दृष्टान्त आदिके भेदका वचन करता है । इस प्रकार अपने वचनोंके विरोधको अपने वचनोंके द्वारा प्रकट करने वाला ज्ञानाद्वैतवादी स्वस्थ कैसे हो सकता है । जैसे कि 'मैं मौनी हूँ' ऐसा कहने वाला व्यक्ति स्ववचनका विरोध स्वयं करता है । यदि विज्ञप्तिमात्रकी ही सत्ता है, तो धर्म-धर्मी आदिके भेदका वचन नहीं हो सकता है । और यदि भेदका वचन किया जाता है, तो विज्ञप्तिमात्रकी सिद्धि नहीं हो सकती है। विज्ञानाद्वैतवादी प्रतिज्ञामें विशेषणविशेष्यभावको भी नहीं मान सकते हैं। क्योंकि ऐसा माननेपर प्रतिज्ञादोष होगा । प्रतिज्ञामें विशेषण - विशेष्यभावका होना आवश्यक है । नील और
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सकृत् संवेद्यमानस्य नियमेन धिया सह । विषयस्य ततोऽन्यत्वं केनाकारेण सिध्यति ॥ भेदश्च भ्रान्तविज्ञानैर्दृश्येतेन्दाविवाद्वये । संवित्ति नियमो नास्ति भिन्नयोर्नीलपीतयोः ॥ नार्थोऽसंवेदमः कश्चिदनर्थं वापि वेदनम् । दृष्टं संवेद्यमानं तत् तयोर्नास्ति विवेकिता || तस्मादर्थस्य दुर्वारं ज्ञानकालावभासिनः । ज्ञानादव्यतिरेकित्वम् ।
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