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२६४ आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-७ यदि किसी प्रमाणसे विज्ञानाद्वैतकी सिद्धि होती है, तो उसी प्रमाणसे बहिरर्थकी भी सिद्धि होनेमें कौनसी बाधा है । स्वपक्षकी सिद्धि और परपक्षमें दूषण देनेके लिए किसी प्रमाणभूत ज्ञानको मानना परमावश्यक है। प्रमाणके अभावमें विज्ञानमें सत्यता और बहिरर्थोंमें असत्यता सिद्ध नहीं हो सकती है। विज्ञानाद्वैतवादीका यह कहना भी ठीक नहीं है कि जो ग्राह्याकार और ग्राहकाकार होता है, वह भ्रान्त होता है, जैसे स्वप्नज्ञान, इन्द्रजाल आदिका ज्ञान । और स्वप्नज्ञानकी तरह प्रत्यक्ष आदि भी भ्रान्त हैं। यहाँ हम विज्ञानाद्वैतवादीसे पूछ सकते हैं कि स्वप्नज्ञानमें भ्रान्तताका ग्राहक जो ज्ञान है, वह भ्रान्त है, या अभ्रान्त । यदि भ्रान्त है, तो भ्रान्त ज्ञानके द्वारा स्वप्नज्ञान आदिमें भ्रान्तता सिद्ध नहीं हो सकती है । और यदि वह ज्ञान अभ्रान्त है, तो उसीकी तरह प्रत्यक्षादिको भी अभ्रान्त मानना चाहिए।
इसलिए यदि विज्ञानमात्र ही तत्त्व है, तो यह निश्चित है कि अनुमान, आगम आदि सब मिथ्या हैं। अर्थात् प्रमाणभास हैं। किन्तु प्रमाणाभास प्रमाणके विना नहीं हो सकता है। ऐसी स्थितिमें विज्ञानाद्वैतवादीको प्रमाणका सद्भाव अवश्य मानना पड़ेगा। विज्ञानमात्रकी सिद्धिके लिए भी प्रमाणका सद्भाव मानना आवश्यक है। और जब प्रमाणका सद्भाव मान लिया तो उस प्रमाणसे जैसे अन्तरङ्ग अर्थकी सिद्धि होती है, वैसे ही बहिरङ्ग अर्थकी भी सिद्धि हो सकती है। अतः केवल अन्तरङ्ग अर्थका सद्भाव मानना युक्तिविरुद्ध एवं असंगत है।
यदि माना जाय कि अनुमानसे विज्ञप्तिमात्रताकी सिद्धि होती है, तो अनुमानमें भी साध्य और साधनकी विज्ञप्तिको विज्ञानरूप माननेमें जो दोष आते हैं, उन्हें बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
साध्यसाधनविज्ञप्तेयदि विज्ञप्तिमात्रता ।
न साध्यं न च हेतुश्च प्रतिज्ञाहेतुदोषतः ॥८॥ साध्य ओर साधनके ज्ञानको यदि विज्ञानमात्र ही माना जाय तो प्रतिज्ञादोष और हेतुदोषके कारण न कोई साध्य बन सकता है और न हेतु।
विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि अर्थ और ज्ञानमें अभेद है, क्योंकि अर्थ
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