Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 440
________________ कारिका - १०१ ] तत्त्वदीपिका ३२३ सकते हैं । किन्तु ऐसा नहीं है । सूत्रकारके उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि एक साथ एक जीवमें चार ज्ञानोंका सद्भाव तो रह सकता है, किन्तु उपयोग तो एक समय में एक ही ज्ञानका होता है । कहा भी है'सह द्वौ न स्त उपयोगात्' अर्थात् उपयोग की अपेक्षासे एक साथ दो ज्ञान नहीं हो सकते हैं । अतः मति आदि चार ज्ञानोंकी सत्ता एक साथ एक जीवमें रह सकती है, किन्तु एक समय में दो ज्ञानोंका उपयोग नहीं हो सकता है । कुछ लोग कहते हैं कि दीर्घशष्कुलीके भक्षणके समय एक साथ चाक्षुष ज्ञान आदि पाँचों ज्ञानोंका सद्भाव पाया जाता है, अतः अनेक ज्ञानोंके एक साथ होने में कोई विरोध नहीं है । उनका ऐसा कथन ठीक नहीं है । क्योंकि रूप आदि पाँच विषयोंका ज्ञान एक साथ किसी भी प्रकार संभव नहीं है । दीर्घशष्कुली भक्षणके समय भी रूप आदिका ज्ञान क्रमसे ही होता है, किन्तु भ्रमके कारण उन पाँच ज्ञानोंमें क्षणक्षयकी तरह क्रमका ज्ञान नहीं हो पाता है । बौद्धों यहाँ प्रत्येक पदार्थ के क्षणिक होने पर भी सादृश्यके कारण उसमें 'यह वही है' ऐसा बोध हो जाता है । तथा रूपज्ञान आदि पाँच ज्ञानोंको युगपत् मानने पर भी उनमें सन्तान भेद मानना ही पड़ेगा । अन्यथा सन्तानान्तरके समान उनमें परस्पर में परामर्श ( प्रत्यभिज्ञान) नहीं हो सकता है । तथा पुरुषान्तरके समान स्पर्शादिका प्रत्यवमर्श भी (प्रत्यभिज्ञान) नहीं हो सकता है। दो सन्तानवर्ती पृथक् पृथक् ज्ञानोंमें परामर्श संभव नहीं है। एक पुरुषने स्पर्शको जाना और दूसरेने रूपको जाना, तो इन दोनोंमें स्पर्शादिका प्रत्यवमर्श सम्भव नहीं है । यतः रूपज्ञान आदि पांच ज्ञानोंमें परस्परमें परामर्श होता है, और स्पर्शादिका प्रत्यवमर्श होता है, अतः रूपज्ञान आदि पाँच ज्ञान युगपत् नहीं होते हैं, किन्तु क्रमसे ही होते हैं । एक साथ सम्पूर्ण पदार्थोंको जानने वाला केवलज्ञान स्याद्वादसे उपलक्षित है । और क्रमसे होने वाले मति आदि ज्ञान स्याद्वाद और नय दोनोंसे उपलक्षित होते हैं । स्याद्वाद समग्र पदार्थको जानता है, । स्याद्वादको प्रमाण भी कहते किन्तु मति आदि चार ज्ञान और नय पदार्थ के एक देशको जानता है हैं । अतः केवलज्ञान सर्वथा प्रमाणरूप है । प्रमाणरूप भी हैं, और नयरूप भी । जब किसी ज्ञानकी दृष्टि समग्रवस्तुपर होती है, तब वह प्रमाण कहलाता है, और जब वह उसके एक अंशपर दृष्टि रखता है, तब वही ज्ञान नय कहलाता है । इसीलिए मति आदि चार ज्ञानोंको प्रमाण और नयसे संस्कृत कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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