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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १०
पादन करने वाले मिथ्या वचनोंके द्वारा अर्थका प्रतिपादन कभी नहीं हो सकता है । अतः विधिवाक्य द्वारा ही वस्तुका नियमन नहीं होता है, किन्तु प्रतिषेध वाक्य द्वारा भी उसका नियमन होता है ।
वाक्य प्रतिषेध द्वारा ही अर्थका नियमन करता है, इस प्रकारके एकान्तका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं
वाक्स्वभावोऽन्यवागर्थप्रतिषेधनिरंकुशः ।
आह च स्वार्थ सामान्यं तादृग्वाच्यं खपुष्पवत् ॥ १११ ॥
वाक्यका यह स्वभाव है कि वह अपने अर्थ सामान्यका प्रतिपादन करता हुआ अन्य वाक्योंके अर्थके प्रतिषेध करनेमें निरंकुश (स्वतंत्र ) होता है । और सर्वथा निषेधरूप वचन आकाशपुष्प के समान अवस्तु है ।
वचनोंके द्वारा स्वार्थका प्रतिपादन होता है, और परार्थका निषेध भी होता है । घट शब्द जहाँ पट आदि अर्थों का निराकरण करता है, वहाँ घटरूप अर्थका प्रतिपादन भी करता है । क्योंकि वचनोंका ऐसा स्वभाव है कि वे स्वार्थका प्रतिपादन करते हुए ही परार्थका निषेध करते हैं । ऐसा नहीं है कि वे परार्थका निषेध ही करते रहें और किंचित् भी स्वार्थका प्रतिपादन न करें । अर्थ भी स्वयं विधिरूप ही या निषेधरूप ही नहीं है, किन्तु दोनों रूप है । यह सत्य है कि वचन परार्थ विशेषका निराकरण करते हैं, किन्तु इसके साथ ही स्वार्थ सामान्यका प्रतिपादन भी करते हैं । अर्थ न केवल विशेषरूप है और न सामान्यरूप ही । सामान्यरहित विशेष और विशेषरहित सामान्य तो खपुष्पके समान असत् हैं | अतः प्रतिषेधवाक्य द्वारा ही अर्थका नियमन नहीं होता है, किन्तु विधिवाक्य द्वारा भी उसका नियमन होता है । यहाँ बौद्धोंके अन्यापोहवाद - का निराकरण किया गया है । बौद्धोंकी मान्यता है कि प्रत्येक वाक्य अन्यापोहरूप प्रतिषेधका ही प्रतिपादन करता है, विधिका नहीं ।
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अन्यापोहवादियोंका निराकरण करनेके लिए आचार्य पुनः कहते हैं
सामान्यवाग् विशेषे चेन्न शब्दार्थो मृषा हि सा । अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलांछनः ॥ ११२ ॥
'अस्ति' आदि सामान्य वाक्य अन्यापोहरूप विशेषका प्रतिपादन करते हैं, ऐसा मानना ठीक नहीं है । क्योंकि अन्यापोह शब्दका अर्थ
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