Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 462
________________ कारिका - ११४ ] तत्त्वदीपिका ३४५ अर्हन्त ही आप्त हैं तो उनके द्वारा दिया गया उपदेश सम्यक् है, और अन्यके द्वारा दिया गया उपदेश मिथ्या है । यह उपदेश सम्यक् है और यह उपदेश मिथ्या है, ऐसा ज्ञान हो जाने पर प्राणी सम्यक् उपदेशके अनुसार ही आचरण करेंगे। जो भव्य हैं और अपने हितके इच्छुक हैं, उन्हीं के लिए यह आप्तमीमांसा बनायी गयी है! अपने हितके अनिच्छुक अभव्योंके लिए इस ग्रन्थका कोई उययोग नहीं है । क्योंकि तत्त्व और अतत्त्वकी परीक्षाके करनेमें भव्योंका ही अधिकार है। प्राणियोंका हित मुख्यरूपसे मोक्ष ही है । मोक्षका कारण होनेसे रत्नत्रय भी हित है । जो बड़े बड़े आचार्य हुए हैं उनके हृदयमें सदा यही भावना विद्यमान रही है कि संसारके प्राणियोंका कल्याण कैसे हो । उनके उद्धारका एकमात्र उपाय सम्यक् और मिथ्या उपदेशकी पहिचान है | 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है', यह सम्यक् उपदेश है | क्योंकि इनमें से किसी एकके अभावमें मोक्ष नहीं हो सकता है । 'ज्ञानसे मोक्ष होता है' यह मिथ्या उपदेश है । क्योंकि इसमें प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधा आती है । सम्यक और मिथ्या उपदेशमें अर्थविशेषकी प्रतिपत्तिके होनेका तात्पर्य यह है कि उनमें सत्य और असत्यका ज्ञान करके हेयका हेयरूपसे और उपादेयका उपादेयरूपसे श्रद्धान, ज्ञान और आचरण करना । यह सम्यक् उपदेश है, इससे हमारा हित होगा, यह मिथ्या उपदेश है, इससे हमारा अहित होगा, ऐसा ज्ञान होने पर प्राणी सम्यक् उपदेशके अनुसार आचरण करके अपना हित कर सकते हैं । इसी भावनासे प्रेरित होकर आचार्य समन्तभद्रने 'आप्तमीमांसा' (सर्वज्ञविशेषपरीक्षा) नामक ग्रन्थकी रचना की है । इसके द्वारा भगवान् अर्हन्तमें ही आप्तत्वकी सिद्धिकी गयी है । इसको पढ़नेसे आप्तका ज्ञान होगा और उसके द्वारा बतलाये गये मार्ग पर चलकर प्राणी अपना हित कर सकेंगे । २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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