Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 443
________________ ३२६ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद- १० वह फल प्रमाणसे कथंचित् भिन्न है, और कथंचित् अभिन्न । करण ( प्रमाण ) और क्रिया ( फलज्ञान ) कथंचित् एक हैं, और कथंचित् नाना हैं । स्याद्वाद शब्दके अन्तर्गत स्यात् विशेषणका अर्थ बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं— वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोर्थ योगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३ ॥ हे भगवन् ! आपके मतमें 'स्यात्' शब्द अर्थके साथ सम्बद्ध होनेके कारण 'स्यादस्ति घट:' इत्यादि वाक्योंमें अनेकान्तका द्योतक होता है । और गम्य अर्थका विशेषण होता है । 'स्यात् शब्द निपात है, तथा वलियों और श्रुतकेवलियों को भी अभिमत है । यहाँ व्याकरणशास्त्रकी दृष्टिसे 'स्यात्' शब्दका विचार करना आवश्यक है । 'अस्' धातुसे विधिलिङ्में 'स्यात्' शब्द बनता है । 'स्याद्वाद' में 'स्यात्' विधिलिङ्में निष्पन्न शब्द नहीं है, किन्तु तिङन्तप्रतिरूपक निपात है | संज्ञा, सर्वनाम, अव्यय आदिके भेदसे शब्द कई प्रकारके होते हैं । जो सदा एकसे रहते हैं और जिनके 'भवति' 'बालक:' इत्यादिकी तरह रूप नहीं चलते हैं, वे 'यथा' 'अपि' 'सदा' इत्यादि शब्द अव्यय कहलाते हैं । और निपात शब्द अव्ययके ही विशेषरूप अथवा अव्ययके अन्तर्गत ही होते हैं । 'हि' 'च' 'एव' 'स्यात् ' इत्यादि शब्द निपात कहलाते हैं । निपात शब्द अर्थके द्योतक होते हैं । कहा भी है- ' द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः । किन्हीं वैयाकरणोंके मतसे निपात वाचक भी होते हैं । 'स्यात्' तिङन्तप्रतिरूपक निपात है । 'स्यात् ' के विधिलिङ्में विधि, विचार, प्रश्न आदि अनेक अर्थ होते हैं । उनमें से यहाँ अनेकान्त अर्थ विवक्षित है । स्यात् शब्द कथंचित् ( किसी सुनिश्चित ) अपेक्षाके अर्थ में प्रयुक्त होता है, संशय, संभावना या कदाचित्के अर्थ में नहीं । 'स्यादस्त्येव घटः, 'स्यान्नास्त्येव घटः ' इत्यादि वाक्योंमें स्यात् शब्द अनेकान्तका द्योतन करता है । वस्तु अनेकान्तात्मक है । सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि सर्वथैकान्तके निराकरण पूर्वक उक्त विरोधी धर्मोका एक वस्तुमें पाया जाना अनेकान्त है । 'स्यात् ' शब्द इसी अनेकान्तका द्योतन करता है । 'स्यादस्ति घट:', यहाँ ' स्यात्' शब्द कहता है कि घट 'अस्तिरूप ही नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only NOTE www.jainelibrary.org

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