________________
कारिका-१०३ ] तत्त्वदीपिका
३२९ _ 'स्याच्छब्दो गम्यमभिधेयमस्ति घट इत्यादिवाक्येऽस्तित्वादि तत्प्रति विशेषकः समर्थकः' । अथति 'अस्ति घटः' इत्यादि वाक्योंमें अस्तित्वादि गम्य है, और स्यात् शब्द अस्तित्वादिका समर्थक होता है । ___यहाँ विशेषकका अर्थ समर्थक बतलाया गया है। किन्तु विशेषकका अर्थ भेदक भी होता है। 'स्याद्वादः हेयादेयविशेषकः' यहाँ विशेषकका अर्थ भेदक ( भेद कराने वाला) ही है। स्यात् शब्द भी अस्तित्वादि धर्मोंका भेदक होता है। अर्थात् घट अस्ति क्यों है और नास्ति क्यों है ऐसा भेद कराता है।
इस प्रकार समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द और वसुनन्दि इन चारों आचार्योंके मतानुसार स्यात् शब्दके विषयमें यहाँ कुछ विशेष प्रकाश डाला गया है।
कारिकामें वाक्य शब्द आया है। अतः वाक्यके लक्षणका विचार करना भी आवश्यक है। वाक्यका लक्षण इस प्रकार है-'पदानांपरस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् ।' परस्पर सापेक्ष पदोंके निरपेक्ष समुदायका नाम वाक्य है। 'मैं जाता हूँ" यह एक वाक्य है। इसमें तीन पद हैं-मैं, जाता और हूँ। मैं, जाता और हूँ, ये तीनों पद एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं। दूसरे पदोंकी अपेक्षाके अभावमें प्रत्येक पदका अर्थ अधूरा ही रहेगा, उसका कोई विशेष अर्थ नहीं निकल सकता है। यदि कोई केवल 'मैं' इतना ही कहे तो वह क्या कहना चाहता है, यह कुछ समझमें नहीं आयगा। इसलिए प्रत्येक पद अपने अर्थकी पूर्तिके लिए दूसरे पदोंकी अपेक्षा रखता है। अतः कुछ पदोंका ऐसा समुदाय जो अपने अर्थको समझाने के लिए किसी अन्य पदकी अपेक्षा नहीं रखता है, वाक्य कहलाता है। 'मैं जाता हूँ' यह तीन पदोंका ऐसा समुदाय है, जो स्वयं अपने में पूर्ण है। पदोंके निरपेक्ष समुदायका नाम वाक्य है। जब तक अन्य पदोंकी अपेक्षा रहेगी, तब तक वह समुदाय वाक्य नहीं कहला सकता है। सापेक्षत्व और निरपेक्षत्व ये प्रतिपत्ताके धर्म हैं। प्रतिपत्ताको जितने पदोंसे अर्थका पूर्ण ज्ञान हो जाय, उतने ही पदोंका नाम वाक्य है। किसी प्रतिपत्ताको कुछ पदोंसे ही किसी अर्थका ज्ञान हो सकता है। दूसरे प्रतिपत्ताके लिए उन पदोंके साथ अन्य पदोंकी भी अपेक्षा रहती है। इसलिए एक प्रतिपत्ताके लिए जो वाक्य होता है, वह दूसरे प्रतिपत्ताके लिए वाक्य नहीं भी हो सकता है। जहाँ 'सत्यभामा' आदि एक पदको सुनकर ही प्रकरण आदिके द्वारा गम्य अर्थका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org