Book Title: Aptamimansa Tattvadipika
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 456
________________ कारिका - १०८ ] तत्त्वदीपिका ३३९ है, ऐसा कहने में कोई अर्थभेद नहीं है, केवल शब्दभेद ही है । द्रव्य एक भी है और अनेक भी है । सामान्यकी अपेक्षासे द्रव्य एक है, और विशेष - की अपेक्षा अनेक है । अथवा अनन्त धर्मोंमें तादात्म्य सम्बन्धकी अपेक्षासे द्रव्य एक है | और अनन्त धर्मोका स्वरूप आदिकी अपेक्षासे पृथक्-पृथक् अस्तित्व होनेके कारण द्रव्य अनेक है । अतः त्रिकालवर्ती नय और उपनयोंके विषयभूत पर्याय विशेषोंके समूहका नाम द्रव्य है । यह द्रव्यका संक्षेपमें लक्षण है | कोई कहता है कि यदि पृथक्-पृथक् धर्म मिथ्या हैं, तो अनन्त मिथ्या धर्मोका समुदाय भी मिथ्या ही होगा । अतः उन धर्मोका समुदायरूप द्रव्य भी मिथ्या है । इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः | निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् || १०८ || कोई एकान्तवादी कहता है कि नित्यत्व आदि मिथ्या धर्मो का समुदायरूप द्रव्य भी मिथ्या है । किन्तु स्याद्वादियोंके यहाँ मिथ्यैकान्तता नहीं है । क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं । हे भगवन् ! आपके मत में नय परस्पर सापेक्ष हैं, और इसीलिए वे अर्थक्रियाकारो वस्तु हैं । यदि नित्यत्व आदि धर्म दूसरे धर्मोका निराकरण करते हैं, तो वे मिथ्या हैं, और ऐसे मिथ्या धर्मोका समुदाय भी मिथ्या ही होगा । मिथ्या धर्मको ग्रहण करनेवाला नय भी मिथ्या है, और उन नयोंका समुदाय भी मिथ्या है | किन्तु स्याद्वादियों के यहाँ एक धर्म दूसरे धर्मोका निराकरण नहीं करता है, किन्तु प्रयोजन होनेसे उनकी उपेक्षा कर देता है, अतः इतरधर्म सापेक्ष प्रत्येक धर्म सम्यक् है, और ऐसे धर्मोका समुदाय भी सम्यक् है । इतरधर्म सापेक्ष एक धर्मको ग्रहण करनेवाला नय भी सम्यक् है, और उन नयोंका समूह भी सम्यक् है । निरपेक्ष नय मिथ्या ( अवस्तु ) होते हैं, और सापेक्ष नय वस्तु होते हैं । निरपेक्षका अर्थ है - दूसरे धर्मोका निराकरण करना, और सापेक्षका अर्थ है-उनकी उपेक्षा कर देना' । प्रमाण एक धर्मके साथ अन्य धर्मोंको भी ग्रहण करता है । नय इतर धर्मोकी उपेक्षा कर देता है । यदि नय इतर धर्मोकी १. निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः, सापेक्षत्वमुपेक्षा, अन्यथा प्रमाणनयाविशेषप्रसङ्गात् । धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्णयाणाम् । - अष्टशती - अष्टसहस्री पृ० २९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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